दुर्योधन का शोकातुर होकर प्रायोपवेश परित्याग:
पांडवों के द्वारा अपने को अपमानित समझकर दुर्योधन ने अपने मृत्यु करने का निश्चय ले लिया।
दुर्योधन को प्रायोपवेश करते देखकर देवताओं से पराजित पातालवासी दैत्य और दानवों ने विचार किया कि, यदि इस प्रकार दुर्योधन का प्राणान्त हो गया तो हमारा पक्ष गिर जायगा। इसलिये उन्होंने उसे अपने पास बुलाने के लिये बृहस्पति और शुक्र के बताये हुए अथर्ववेदोक्त मंत्रों द्वारा औपनिषद् कर्मकाण्ड आरम्भ किया।
कर्म समाप्त होने पर एक बड़ी ही अद्भुत कृत्या जम्हाई लेते हुए प्रकट हुई और बोली, 'बताओ मैं क्या करूँ ? तब दैत्यों ने प्रसन्न होकर कहा, 'तू प्रायोपवेश करते हुए राजा दुर्योधन को यहाँ ले आ।' तब कृत्या 'जो आज्ञा' कहकर चली गई और एक क्षण में ही दुर्योधन को लेकर रसातल में पहुँच गई। दुर्योधन को आया देखकर दानवों के चित्त प्रसन्न हो गये और उन्होंने उससे अभिमानपूर्वक कहा, 'भरतकुलदीपक महाराज दुर्योधन ! आपके पास सदा ही बड़े-बड़े शूरवीर और महात्मा बने रहते हैं। फिर आपने यह प्रायोपवेश का साहस क्यों किया है ?
जो पुरुष आत्महत्या करता है, वह अधोगति को प्राप्त होता है और लोक में भी उसकी निन्दा होती है। आपका यह विचार तो धर्म, अर्थ और सुख का नाश करनेवाला है; इसे आप छोड़ दीजिये। आप शोक क्यों करते हैं, आपके लिये अब किसी प्रकार का खटका नहीं है। आपकी सहायता के लिये अनेक दानववीर पृथ्वी पर उत्पन्न हो चुके हैं। कुछ दूसरे दैत्य, भीष्म, द्रोण और कृप आदि के शरीर में प्रवेश करेंगे, जिससे वे दया और स्नेह को तिलांजली देकर आपके शत्रुओं से संग्राम करेंगे। उनके सिवा क्षत्रिय जाति में उत्पन्न हुए और भी अनेकों दैत्य और दानव आपके शत्रओं के साथ युद्ध में पूरे पराक्रम से भिड़ जायेंगे। महारथी कर्ण अर्जुन तथा और भी सभी शत्रुओं को परास्त करेगा। इस काम के लिये हमने संशप्तक नामवाले सहस्त्रों दैत्य और राक्षसों को नियुक्त कर दिया है। वे सुप्रसिद्ध वीर अर्जुन को नष्ट कर डालेंगे। आप शोक न करें, अब इस पृथ्वी को शत्रुओं से रहित ही समझें।
देखिये, देवताओं ने तो पाण्डवों का आश्रय ले रखा है और आप सर्वदा मेरी गति हैं।' इस प्रकार दुर्योधन को उपदेश देकर उन्होंने कहा, 'आप अब अपने घर जाइये और शत्रुओं पर विजय प्राप्त कीजिये।' दैत्योंं के विदा करने पर कृत्या ने दुर्योधन को फिर प्रायोपवेश के स्थान पर ही पहुँचा दिया और वह वहीं अन्तर्धान हो गयी। कृत्या के चले जाने पर दुर्योधन को चेत हुआ और उसने इस सब प्रसंग को एक स्वप्न सा समझा। दूसरे दिन सवेरा होते ही सूतपुत्र कर्ण ने हाथ जोड़कर हँसते हुए कहा, 'महाराज ! मरकर कोई भी मनुष्य शत्रुओं को नहीं जीत सकता; जो जीता रहता है, वह कभी सुख के दिन भी देख लेता है। आप इस तरह क्यों सो रहे हैं, शोक की ऐसी क्या बात है ?
एक बार अपने पराक्रम से शत्रुओं को संतप्त करके अब क्यों मरना चाहते हैं ? आपको अर्जुन का पराक्रम देखकर भय तो नहीं हो गया है। यदि ऐसा है तो आपके सामने सच्ची प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि मैं उसे संग्राम में मार डालूँगा। मैं प्रतिज्ञापूर्वक शस्त्र छूकर कहता हूँ कि पाण्डवों के अज्ञातवास का तेरहवाँ वर्ष समाप्त होते हीमैं उन्हें आपके अधीन कर दूँगा।' कर्ण के इस प्रकार कहने और दुःशासनादि के बहुत अनुनय-विनय करने पर तथा दैत्यों की बात याद करके दुर्योधन आसन से खड़ा हो गया। उसने पाण्डवों के साथ युद्ध करने का पक्का विचार कर लिया और फिर हस्तिनापुर चलने के लिये रथ, हाथी, घोड़े और पदातियों से युक्त चतुरंगिणी सेना को तैयारी करने की आज्ञा दी। वह विशाल वाहिनी सज-धजकर गंगाजी के प्रवाह के समान चलने लगी। इस प्रकार कुछ ही समय में सब लोग हस्तिनापुर पहुँच गये।
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