शास्त्रीय अनमोल वचन
प्रत्येक व्यक्ति के जीवन को सुन्दर और सुचारु रूप से चलाने में सहायक ये अनमोल वचन हमने स्वयं चाणक्य नीति, विदुर नीति और गरुण पुराण को अच्छी प्रकार से अध्ययन करने के बाद इन अनमोल वचन की पंक्तियों को संग्रह किया है जिनका इस कलिकाल में कोई भी व्यक्ति नि:संकोच अनुसरण कर सकता है और इनका अनुसरण करना भी चाहिए।
1. बुद्धिमान पुरुष की बुराई करके इस विश्वास पर निश्चिंत न रहे कि' मैं दूर हूं'। बुद्धिमान की बाॅंहे बड़ी लंबी होती है, सताया जाने पर वह उन्हीं बाहों से अपनी ताकत दिखाता है।
2. जो विश्वास का पात्र नहीं है, उसका तो विश्वास करें ही नहीं, किंतु जो विश्वास पात्र है,उस पर भी अधिक विश्वास न करें, विश्वासी पुरुष से उत्पन्न हुआ भय मूलोच्छेद कर डालता है।
3. मनुष्य को चाहिए कि वह ईर्ष्यारहित, स्त्रियों का रक्षक, संपत्ति का न्याय पूर्वक विभाग करने वाला प्रियवादी तथा स्त्रियों के निकट मीठे वचन बोलने वाला हो परंतु उनके वश में कभी न हो।
4. स्त्रियां घर की लक्ष्मी कही गई है, ये अत्यंत सौभाग्यशालिनी, पूजा के योग्य, पवित्र तथा घर की शोभा है। अतः इनकी विशेष रूप से रक्षा करनी चाहिए ।
5. धर्म, काम और अर्थ संबंधी कार्यों को करने से पहले न बताएं, करके ही दिखाएं । ऐसा करने से अपनी मंत्रणा दूसरों पर प्रकट नहीं होती ।
6. वश में आए हुए वध योग्य शत्रु को कभी नहीं छोड़ना चाहिए, यदि अपना बल अधिक न हो तो नम्र होकर उसके पास समय बिताना चाहिए ,और बल होने पर उसे मार ही डालना चाहिए ,क्योंकि यदि शत्रु मारा न गया तो उससे शीघ्र ही भय उपस्थित होता है ।
7. देवता, ब्राम्हण, राजा, वृद्ध बालक, और रोगी पर होने वाले क्रोध को प्रयत्न पूर्वक रोकना चाहिए ।
8. निरंतर कलह करना मूर्खों का काम है।
9. धैर्य, मनोनिग्रह, इन्द्रियसंयम, पवित्रता, दया, कोमलवाणी और मित्र से द्रोह न करना- ये सात बातें लक्ष्मी को बढ़ाने वाली हैं ।
10. सावधान! जो स्वयं दोषी होकर भी निर्दोष आत्मीय व्यक्ति को कुपित करता है, वह सर्पयुक्त घर में रहने वाले मनुष्य की भांति रात में सुख से नहीं सो सकता।
11. जो धन आदि पदार्थ स्त्री , प्रमादी, पतित और नीच पुरुषों के हाथ में सौंप देते हैं वे संशय में पड़ जाते हैं।
12. मनुष्य जितना आवश्यक है, उतने ही काम में लगा रहे, अधिक में हाथ न डालें ,क्योंकि अधिक में हाथ डालना संघर्ष का कारण होता है।
13. समय के विपरीत यदि बृहस्पति भी कुछ बोले तो उनका अपमान ही होगा और उनकी बुद्धि की भी अवज्ञा भी होगी।
14. जो बृद्धि ( कोई भी ) भविष्य में नाश का कारण बने उसे अधिक महत्व नहीं देना चाहिए, और उस क्षय (नाश) भी बहुत आदर नहीं करना चाहिए जो आगे चलकर अभ्युदय का कारण हो। वास्तव में जो क्षय वृद्धि का कारण होता है वह क्षय नहीं है किंतु उस लाभ को भी क्षय ही मानना चाहिए, जिसे पाने से बहुतों का नाश हो जाए।
15. जो लोग अपने भले की इच्छा करते हैं उन्हें अपने जाति - भाइयों को उन्नति शील बनाना चाहिए। शुभ चाहने वाले को अपनी जाति-भाइयों के साथ कलह नहीं करना चाहिए ।
16. कुशल विद्वानों के द्वारा भी उपदेश किया हुआ ज्ञान व्यर्थ ही है, यदि उसे कर्तव्य का ज्ञान न हुआ अथवा होने पर भी उसका अनुष्ठान न हुआ।
17. अधम कुल में उत्पन्न हुआ हो या उत्तम कुल में - जो मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता, धार्मिक कोमल, स्वभाव वाला, सलज्ज है, वह सैकड़ो कुलीनों से बढ़कर है।
18. उद्योग, संयम दक्षता, सावधानी, धैर्य, स्मृति और सोच - विचार कर कार्यारंभ करना इन्हें उन्नति का मूल मंत्र समझिए।
19. जल, मूल, फल, दुध, घी, ब्राम्हण की इच्छा पूर्ति, गुरु का वचन, औषध - ये आठ व्रत के नाशक नहीं होते।
20. जो अपने प्रतिकूल जान पड़े उसे दूसरों के प्रति भी न करें।
21. जो गुरुजनों को प्रणाम करता है और वृद्ध पुरुषों की सेवा में लगा रहता है, उसकी कीर्ति, आयु, यश, और बल ये चारों बढ़ते हैं।
22. सोकर नींद को जीतने का प्रयास न करें, कामोंपभोग के द्वारा स्त्री को जीतने की इच्छा न करें, लकड़ी डालकर आग को जीतने की आशा न करें, अधिक पीकर भी मदिरा पीने की इच्छा को जीतने का प्रयास न करें।
23. अधर्म से उपार्जित महान धनराशि को भी उसकी ओर आकृष्ट हुए बिना ही त्याग देना चाहिए।
24. आलस्य, मद, चंचलता, गोष्ठी उदण्डता, अभिमान और लोभ - ये सात विद्यार्थियों के लिए सदा ही दोष माने गए हैं।
25. कामना से, भय से, लोभ से तथा इस जीवन के लिए भी कभी धर्म का त्याग न करें। धर्म नित्य है, किंतु सुख दुख अनित्य है ।जीव नित्य है किंतु इसका कारण (अविद्या ) अनित्य है ।
26. शिश्न और उदर की धैर्य से रक्षा करें, अर्थात् काम और भूख की ज्वाला को धैर्य पूर्वक सहे।इसी प्रकार हाथ पैर की नेत्रों और कानों की मन से तथा मन और वाणी सत्कर्मों से रक्षा करें।
27. कलियुग में केवल दान ही धर्म है। कलियुग में केवल पाप करने वालों का परित्याग करना चाहिए।
28. कलियुग में पाप तथा शाप - ये दोनों एक ही वर्ष मे फलीभूत हो जाते हैं।
29. स्नान ,जप ,होम ,संध्या ,देव व अतिथि पूजन इन षट्कर्मों को प्रतिदिन करना चाहिए ।
30. व्यक्ति का पतन अभक्ष्य - भक्षण (शास्त्र निषिद्ध भोजन) चोरी और अगम्यागमन करने से हो जाता है।
31. शत्रु से सेवित व्यक्ति के साथ प्रेम न करें, मित्र के साथ विरोध न करें ।
32. मूर्ख शिष्य को उपदेश करने से, दुष्टों का किसी कार्य में सहयोग लेने से, विद्वान पुरुष भी अंत में दुखी हो जाता है ।
33. काल की प्रबलता से शत्रु के साथ संधि एवं मित्र से द्रोह भी हो जाता है। अतः कार्य-कारण - भाव का विचार करके सज्जन को अपना समय व्यतीत करना चाहिए ।
34. समय प्राणियों का पालन, संहार, लाभ, हानि, उन्नति, पराक्रम, यश एंव अपयश का कारण होता है। संयम का चक्र महान है।
35. उत्तम प्रगति वाले सज्जनों की संगति, विद्वानों के साथ-साथ कथा का श्रवण, लोभ रहित मनुष्य के साथ मैत्री संबंध स्थापित करने वाला पुरुष दुखी नहीं होता।
36. हितकारी अन्य व्यक्ति भी अपने बंधु और यदि बंधु अहितकर है तो वह भी अपने लिए पराया ही है, जैसे शरीर से उत्पन्न रोग अहितकर हैं किंतु वन में उत्पन्न हुई औषधि उस रोग का निराकरण करके मनुष्य का हित साधन करती है।
37. जो आज्ञा पालक है वही वास्तविक सेवक है , जो पति के साथ प्रिय सम्भाषण करती है वही वास्तविक पत्नी है, पिता के जीवन पर्यंत पिता के भरण-पोषण में जो पुत्र लगा रहता है वही वास्तव में पुत्र है ।
38. जो नित्य स्नान करके अपने शरीर को सुगंधित द्रव्य पदार्थों से सुवासित करने वाली है, प्रिय वादिनी है, अल्पाहारी है, मितभाषिणी है, सदा सब मंगलों से युक्त है, धर्म परायण है, निरंतर पति की प्रिय है, सुन्दर मुख वाली है, ऋतुकाल में ही पति के साथ सह गमन की इच्छा रखती है वही अनुपम पत्नी है।
39. नरक में निवास करनाअच्छा है किंतु दुष्ट चरित्र व्यक्ति के घर में निवास करना उचित नहीं है।
40. बुद्धिमान पुरुष एक पाॅंव को स्थिर करके ही दूसरे पाॅंव को आगे बढ़ाता है; इसीलिए अगले स्थान की परीक्षा के बिना पूर्व स्थान का परित्याग नहीं करना चाहिए।
41. अर्थ प्रदान के द्वारा लोभी मनुष्य को ,करबद्ध प्रणाम निवेदन से उदारचेता व्यक्ति को, प्रशंसा करने से मूर्ख व्यक्ति और तात्विक चर्चा से विद्वान पुरुष को, अतिरिक्त साधारण लोग खानपान से संतुष्ट होते हैं।
42. जिसका जैसा स्वभाव हो, उसके अनुरूप वैसा ही प्रिय वचन बोलते हुए उसके हृदय में प्रवेश करके चतुर व्यक्ति को यथाशीघ्र उसे अपना बना लेना चाहिए।
43. नदी ,नख तथा श्रृंग धारण करने वाले पशु , हाथ में शस्त्र धारण किये हुए पुरुष, स्त्री और राजपरिवार विश्वास करने योग्य नहीं होते हैं।
44. बुद्धिमान पुरुष को अपनी धनक्षति, मनस्ताप, घर में हुए दुश्चरित्र, तथा अपमान की घटना को दूसरे के समक्ष प्रकाशित नहीं करना चाहिए ।
45. नीच और दुर्जन व्यक्ति का सांनिध्य, अत्यंत विरह, सम्मान (अधिक), दूसरों के प्रति स्नेह एवं दूसरे के घर में निवास- ये सभी नारी के उत्तम शील को नष्ट करने वाले हैं।
46. अपने विहित कर्म ,धर्माचरण का पालन, जीविकोपार्जन में तत्पर, सदैव शास्त्र चिन्तन में रत, अपनी स्त्री में अनुरक्त, जितेन्द्रिय, अतिथि सेवा निरत श्रेष्ठ पुरुषों को तो घर में भी मोक्ष प्राप्त हो जाता है।
47. देव पूजन आदि कर्म, ब्राह्मण को दान, गुणवती विद्या का संग्रहण, तथा सन्मित्र- ये सदा सहायक होते हैं।
48. बुद्धि वह है जो दूसरों के संकेत मात्र से भी वास्तविकता को समझ ले।
55. मित्र में अपने प्रति एक बार भी दुष्ट भाव परिलक्षित हो जाने पर उसे त्याग देना चाहिए। अल्प वार्तालाप ही मित्र के लिए है दण्ड है।
57. उपकार के द्वारा वशीभूत हुए शत्रु से अन्य शत्रु को समूल उखाड़ फेंकना चाहिए क्योंकि पैर में गड़े हुए कांटे को मनुष्य हाथ में लिए हुए कांटो से ही निकालता है ।
58. सज्जन व्यक्ति को अपकार परायण मनुष्य के नाश की चिंता कभी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह नदी के तट पर अवस्थित वृक्षों की भांति स्वयं ही नष्ट हो जाता है।
59. धनार्जन करते समय, किसी भी प्रकार का प्रयोग करते समय, अपने कार्य को सिद्ध करते समय, भोजन के समय और सांसारिक व्यवहार के समय मनुष्य को लज्जा का परित्याग कर देना चाहिए ।
60. एक ही व्यक्ति में सभी ज्ञान प्रतिष्ठित रूप में नहीं रहते । इसीलिए यह सर्वमान्य है कि सभी व्यक्ति सब कुछ नहीं जानते हैं और कहीं पर भी सभी सर्वज्ञ नहीं है ।इस संसार में न तो कोई सर्वविद् है और न कोई अत्यंत मूर्ख ही है। उत्तम , मध्यम तथा निम्न स्तरीय ज्ञान से व्यक्ति को जितना जानता है उसे उतने में विद्वान समझना चाहिए।
61. जो मनुष्य पराई स्त्रियों में मातृ भाव रखता है ,जो दूसरों के द्रव्य को मिट्टी पत्थर के ढेले समझता है ,सभी प्राणियों में आत्मदर्शन करता है ,वही विद्वान है।
62. जिसके पास धन है उसी के मित्र एंव बन्धु - बांधव है।
63. धैर्यवान पुरुष कष्ट पाकर भी दुखी नहीं होते, क्योंकि राहु के मुख में प्रविष्ट होकर चंद्र क्या पुनः उदित नहीं होता। अतः अनुकूल समय की प्रतीक्षा धैर्य के साथ करनी चाहिए।
64. उद्योग करने पर यदि व्यक्ति को कार्य में सफलता प्राप्त नहीं होती है तो उस में भाग्य ही कारण है तथापि मनुष्य को सदा पुरुषार्थ करते रहना चाहिए क्योंकि इस जन्म का ही पौरूष अगले जन्म में भाग्य बनाता है।
65. दुर्जनो के साथ विवाद और मैत्री कुछ भी न करें तो अच्छा होगा।
66. सूर्यग्रहण-चन्द्र ग्रहण आदि समयों मे मंत्र का जप, तपस्या, तीर्थ सेवन, देवार्चन,ब्राह्मण पूजन - ये सभी कृत्य भी महापातकों को भी नष्ट करने वाले होते हैं।
67. पंडित, विनीत, धर्मज्ञ एवं सत्यवादी जनों के साथ बंधन में भी रहना श्रेयस्कर है किंतु दुष्टों के साथ राज्य का भी उपभोग करना उचित नहीं है।
68. कोई भी काम अधूरा नहीं छोड़ना चाहिए। इससे सभी प्रकार के अर्थों की प्राप्ति होती है।
69. रागी व्यक्ति से वन में भी दोष हो जाते हैं अतः जो व्यक्ति जितेंद्रिय होकर अनिंदित कर्मों में प्रवृत्त हो सन्मार्ग की ओर बढ़ता जाता है, उस विषयवासनाओं से दूर निवृत मार्ग वाले के लिये उसका घर तपोवन हैं ।
70. सत्य के पालन से धर्म की रक्षा होती है। सदा अभ्यास करने से विद्या की रक्षा होती है। मार्जन के द्वारा पात्र की रक्षा होती है और शील से उसके कुल की रक्षा होती है।
71. विन्ध्यावटी में निवास करना मनुष्यों के लिए अच्छा है, बिना भोजन के लिए मर जाना, सर्पसे परिव्याप्त भूमि पर सोना, कुएं में गिरकर मरना, जल के भयंकर भँवर में डूब कर मरना श्रेष्ठ है। किंतु अपने पक्ष के आत्मीय जन से 'थोड़ा धन मुझे दे दो ' इस प्रकार याचना करना अच्छा नहीं है।
72. भाग्य का ह्रास होने से मनुष्य की संपदाओं का विनाश हो जाता है, न कि उपभोग करने से।पूर्व जन्म में यदि पुण्य अर्जित है तो संपत्ति का नाश कभी नहीं हो सकता।
73. इस संसार में ऐसा कोई भी नहीं है, जिसको भाग्य के वशीभूत होने के कारण कर्म रेखा नहीं घुमाती। अतः मै उस कर्म को प्रणाम करता हूं।
74. राजा बलि उत्कृष्ट कोटि के दाता थे और याचक स्वयं भगवान विष्णु थे, विशिष्ट ब्राह्मणों के समक्ष पृथ्वी का दान दिया गया, फिर भी दान का फल बंधन प्राप्त हुआ। यह सब दैव का खेल है, ऐसे इच्छा अनुसार फल देने वाले दैव को नमस्कार है।
75. पूर्व जन्म में प्राणी ने जैसा कर्म किया है , उसी के अनुसार वह दूसरे जन्म में फल भोगता है। अतः स्वयमेव प्राणी अपने भाग्य फल का निर्माण करता है ,अर्थात वह कर्म फल का स्वयं ही विधाता है ,जिस अवस्था , जिस समय, जिस दिन, जिस रात्रि ,जिस मुहूर्त अथवा जिस क्षण जैसा होना निश्चित है वैसा ही होगा ।
76. न पिता के कर्म से पुत्र को सद्गति मिल सकती है ,और न पुत्र के कर्म से पिता को सद्गति मिल सकती है , सभी लोग अपने - अपने कर्म से ही अच्छी गति प्राप्त करते हैं।
77. पूर्व जन्म में अर्जित कर्म फल के अनुसार प्राप्त शरीर में शारीरिक व मानसिक रोग आकर अपना दुष्प्रभाव प्रकट करते हैं।
78. बाल, युवा ,तथा वृद्ध जो भी शुभाशुभ कर्म करता है, वह जन्म जन्मांतर में उसी अवस्था में उस कर्म फल का भोग करता है।
79. मनुष्य अपने प्रारब्ध का फल प्राप्त करता है। देवता भी उस फल भोग को रोकने में समर्थ नहीं है। इसीलिए मैं कर्म के विषय में चिंता नहीं करता और न मुझे आश्चर्य ही है क्योंकि जो मेरा है उसे दूसरा कोई नहीं ले सकता ।
80. सभी प्रकार की सूचिताओं में अन्न की सूचिता प्रधान है, जो मनुष्य अन्न व अर्थ से पवित्र है ,वहीं शुचि है ,इनके अपवित्र रहने पर केवल मिट्टी व जल से शुचिता नहीं आती ।
81. विद्वान, मधुरभाषी भी कोई व्यक्ति यदि दरिद्र है तो उसके समयोचित हितकारी वचन को सुनकर भी कोई संतुष्ट नहीं होता।
82. समय प्राप्त ना होने से पहले प्राणी सैकड़ों बाण लगने पर भी नहीं मरता और समय के आ जाने पर कुशा की नोक लग जाने से वह जीवित नहीं रहता।
83. अपने कर्म से प्रेरित होकर प्राणी स्वयं ही उन - उन स्थानों पर पहुंच जाता है, पूर्व जन्म में किया गया कर्म कर्ता के पीछे- पीछे वैसे ही रहता है, जैसे हजार गायों के रहने पर भी बछड़ा अपनी माता को प्राप्त कर लेता है।
84. नीच व्यक्ति दूसरे में सरसों के बराबर भी स्थित दोष छिद्रों को देखता है किंतु अपने बेल के समान अवस्थित दोष को नहीं देखता।
85. संक्षेप, में पराधीनता ही दु:ख है और स्वाधीनता ही सुख है।
86. प्राणी को सुख भोग के पश्चात दु:ख है व दु:ख भोग के पश्चात सुख प्राप्त होता है, इस प्रकार मनुष्य के सुख-दुख चक्र के समान परिवर्तित होते रहते हैं।
87. जो मनुष्य भूतकालिक विषय - वस्तु को समाप्त हुआ मान लेता है, और भविष्य में होने वाले को बहुत दूर समझता है व वर्तमान में अनासक्त भाव से रहता है वह किसी भी प्रकार के शोक से दुखी नहीं होता है।
88. यदि मनुष्य के साथ शाश्वत प्रेम करना चाहता है तो उसके साथ धूत और धन का लेनदेन एवं परोक्ष रूप में उसकी स्त्री का दर्शन - इन तीनों दोषों का परित्याग कर देना चाहिए।
89. माता, बहिन अथवा पुत्री के साथ एकांत में नहीं रहना चाहिए, क्योंकि इंद्रियों का समूह बलवान होता है, वह विद्वान को भी दूराचरण की ओर खींच लेता है।
90. जो मधुर पदार्थों से बालक को, विनम्र भाव से सज्जन पुरुष को, धन से स्त्री को, तपस्या से देवता को, और सद्भावना व सद्व्यवहार से समस्त लोक को वश में कर लेता है ,वही पंडित है।
91. अधिक मात्रा में जल का पीना, गरिष्ठ भोजन, धातु की क्षीणता, मल - मूत्र का वेग रोकना, दिन में सोना ,रात में जागना - इन छ: कारणों से शरीर में रोग निवास करने लगते हैं।
92. प्रातः कालीन धूप, अतिशय मैथुन, श्मशान के धूप का सेवन, अग्नि में हाथ सेंकना, रजस्वला स्त्री का मुख दर्शन- दीर्घ आयु का विनाश करते हैं।
93. शुष्क माॅंस, वृद्धा स्त्री, बाल सूर्य ,रात्रि में दही का प्रयोग, प्रभात काल में मैथुन एवं प्रातः कालीन निद्रा - ये छ: संघ प्राण विनाशक होते हैं।
94. ताजा घी, द्राक्षा फल, बाला स्त्री ,दूग्ध सेवन, गरम जल तथा वृक्षो की छाया ये शीघ्र ही प्राण शक्ति प्रदान करने वाले हैं ।
95. तैल मर्दन और सुंदर भोजन की प्राप्ति ये सद्य शरीर में शक्ति का संचार करते हैं किंतु मार्ग - गमन, मैथुन और ज्वर - ये सद्य पुरुष का बल हर लेते हैं।
96. जो मलिन वस्त्र धारण करता है ,दांतो को स्वच्छ नहीं रखता ,अधिक भोजन करने वाला, कठोर वचन बोलने वाले हैं, और सूर्योदय और सूर्यास्त के समय भी सोता है ,उसे लक्ष्मी छोड़ देती है।
97. जो मनुष्य नख से तृण छेदन करता है, पृथ्वी पर लिखता है, चरणों का प्रक्षालन नहीं करता, केश संस्कार विहीन रखता है ,नग्न शयन करता है परिहास अधिक करता है ,अपने अंग व आसन पर बाजा बजाता है ,तो उसे लक्ष्मी जी त्याग देती हैं ।
98. जो पुरुष अपने सिर को जल से धोकर स्वच्छ रखता है ,चरणों को प्रसारित करके मल रहित करता है ,वेश्या का मन से दूर रहता है, अल्प भोजन करता है। नग्न शयन नहीं करता पर्व रहित दिवसों में स्त्री सहवास करता है तो उसके ये षट्कर्म चिरकाल से भी नष्ट हुई उसकी लक्ष्मी को पुनः उसके पास ले आते हैं ।
99. बाल सूर्य के तेज ,जलती हुई चिता का धुॅंआ, वृद्ध स्त्री ,बासी दही और झाड़ू की धूली का सेवन दीर्घायु को नष्ट करते हैं।
101. गधा, ऊंट ,बकरी, भेड़ की धूलि अशुभ होती है ।
102. सुप फटकने से निकली हुई वायु ,नाखून का जल ,स्नान किए हुए वस्त्र से निचोड़ा हुआ जल, केश से गिरता हुआ जल झाड़ू की धूनी मनुष्य के पूर्वजन्मार्जित पुण्य को नष्ट कर देती है।
103. ब्राह्मण तथा अग्नि के बीच से ,दो ब्राह्मण के बीच से, पति-पत्नी के बीच से, घोड़ा व साड़ के बीच से कभी नहीं जाना चाहिए।
104. प्राणी को अत्यंत सरल व अत्यंत कठोर नहीं होना चाहिए ,क्योंकि सरल स्वभाव से सरल व कठोर स्वभाव से कठोर शत्रु को नष्ट किया जा सकता है।
105. सज्जन पुरुष के आगे पीछे संपदाएं सर्वदा घूमती रहती है।
106. छ: कानों तक पहुंची हुई गुप्त मंत्रणा नष्ट हो जाती है ।अतः मंत्रणा को चार कानों तक ही सीमित करना चाहिए। दो कानों तक स्थित मंत्रणा को तो ब्रह्मा भी जानने में समर्थ नहीं है।
107. एकेनापि सुपुत्रेण विद्यायुक्तेन धीमता। कुलं पुरुषसिंहेन चन्द्रेण गगनं यथा।।
एकेनापि सुवृक्षेण पुष्पितेन सुगन्धिता। वनं सुवासितं सर्व ंसुपुत्रेण कुलं यथा।।
108. मनुष्य को 5 वर्ष तक पुत्र का प्यार से पालन करना चाहिए ,10 वर्ष तक उसे अनुशासित रखना चाहिए तथा 16 वर्ष की अवस्था प्राप्त होने पर उसके साथ मित्रवत व्यवहार करना चाहिए ।
109. कम शक्तिशाली वस्तुओं का संगठन भी शक्ति संपन्न हो जाता है।
110. मनुष्य को भूलकर भी दुष्ट एवं छोटे शत्रु की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए क्योंकि भली प्रकार से न बुझाई गई अग्नि संसार को भस्म कर सकती है।
111. मनुष्य को गुणहीन पत्नी, दुष्ट मित्र, दुराचारी राजा, कुपुत्र, गुणहीन कन्या और कुत्सित देश का परित्याग दूर से ही कर देना चाहिए।
112. क्रोध से तपस्या नष्ट हो जाती है।
113. दुलार में बहुत से दोष हैं और ताड़ना में बहुत से गुण हैं, अत: शिष्य एवं पुत्र को अनुशासित रखना चाहिए।
114. आयु, कर्म, धन, विद्या और मृत्यु - ये 5 जन्म से सुनिश्चित रहते हैं।
115. निर्बल का बल राजा, बालक का बल रोना ,मूर्खों का बल मौन रहना और चोर का बल असत्य है।
116. लोभ, प्रमाद और विश्वास व्यक्ति के विनाश के कारण हैं।
117. मनुष्य को भय से उसी समय तक भयभीत रहना चाहिए, जिस समय तक उसका आगमन नहीं हो जाता ।भय के उपस्थित हो जाने पर उससे निर्भीक होकर सामना करना चाहिए।
118. ऋण, अग्नि तथा व्याधि के शेष रहने पर वे बार - बार बढ़ते है ,अतः उनका शेष रहना उचित नहीं है।
119. कौमार्य अवस्था में स्त्री का अच्छा पिता करता है, युवावस्था में उसकी रक्षा भार पति पर होता है, वृद्धावस्था में उसकी रक्षा का भार पुत्र उठाता है, स्त्री स्वतंत्र रहने योग्य नहीं है ।
120. अर्थ के लिए आतुर मनुष्य का न कोई मित्र है, न कोई बंधु, कामातुर व्यक्ति के लिये न भय है और न ही लज्जा, चिंता ग्रस्त व्यक्ति के लिए न सुख है, न नींद, भूख से पीड़ित मनुष्य के शरीर में न बल ही रहता है और न ही तेज।
121. मुख की विकृति, स्वर भंग, दैन्य भाव, पसीने से लथपथ शरीर, अत्यंत भय के चिह्न प्राणी में मृत्यु के समय उपस्थित होते हैं।
123. अरे! यदि मांगना हो तो ईश्वर से मांगो, वही तो एकमात्र अपना है ,उससे दूराव करके दूसरों से लगाव क्यों?
124. अनित्य, अपवित्र, अनात्मभाव रत हो अविद्या कूप - मंडूक बने रहना बुद्धिमता नहीं है, बल्कि स्वाध्याय, ध्यान एवं जप के सहारे बैराग्य, ज्ञान, भक्ति को सुदृढ़ करके दिव्य परमानंद पथ पर आगे बढ़ना है।
125. हे मनुष्य! भाव सागर से पार होने के लिए परमात्मा की प्राप्ति का दृढ़ पुरुषार्थ करो - प्रभु प्रार्थना एवं पाठ जाप में मन न लगे तो भी नियम से करते चलो।
126. समुद्र में गोता लगाने से यदि मोती हाथ न लगे तो यह न समझे कि समुद्र में मोती नहीं है। ईश्वर प्राप्ति में यदि तुम्हारा प्रथम प्रयास निष्फल हो, तो अधिर न हो जाओ, निरंतर प्रयास करते रहो, अंत में ईश्वरीय कृपा अवश्य होगी।
127. ईश्वर कृपााभिलाषी मानव को प्रमाद,आलस्य आदि का परित्याग करके प्रतिदिन प्रातः काल नियम पूर्वक प्रभु की उपासना की आदत दृढ़ करनी चाहिए।
128. एक बात का सदैव ध्यान रखें कि प्रभु प्रार्थना के जो भी शब्द मुंह से निकले उनके साथ भावपूर्ण मन का होना आवश्यक है ।
भाव बिना बाजार की, वस्तु मिलें नहीं मोल।
भाव बिना हरि क्यों मिलें, भाव सहित हरि बोल ।।
129. संक्रांति, अमावस्या, द्वादशी, पूर्णिमा, रविवार और सायंकाल के समय तुलसी पत्र नहीं तोड़ना चाहिए ।
130. यदि मनुष्य अपने जीवन का उत्सर्ग तीर्थ में करता है तो उसका पुनर्जन्म नहीं होता है। अयोध्या, मथुरा ,माया ,काशी ,कांची,अवंतिका और द्वारका यह सात पुरियाॅं मोक्ष देने वाली है।
131. जो मनुष्य मृत्यु के समय एक बार 'हरि 'इस दो अक्षर का उच्चारण कर लेता है, वह मानव मोक्ष प्राप्त करने के लिए कटिबद्ध हो गया है।
132. जो मनुष्य प्रतिदिन' कृष्ण - कृष्ण - कृष्ण' यह कहकर मेंरा स्मरण करता है उसको मैं उसी प्रकार मुक्त कर देता हूं जिस प्रकार जल का भेदन कर कमल ऊपर निकल जाता है।
133. तुलसी का वृक्ष लगाने ,पालन करने, सींचने, ध्यान स्पर्श और गुणगान करने से मनुष्यों के पूर्व जन्म अर्जित पाप जलकर नष्ट हो जाते हैं।
134. देवता कभी काष्ठ और पत्थर की शिला में नहीं रहते, वे तो प्राणी के भाव में विराजमान रहते हैं इसीलिए सद्भाव से युक्त भक्ति का आचरण करना चाहिए।
135. मनुष्य के चित्त में जैसा विश्वास होता है वैसा ही उन्हें अपने कर्मों का फल प्राप्त होता है, क्योंकि मछुआरे प्रतिदिन प्रातः काल जाकर नर्मदा नदी का दर्शन करते हैं किंतु व शिवलोक तक नहीं पहुंच पाते।
136. जो निराहार व्रत के द्वारा मृत्यु प्राप्त करता है, उसे भी मुक्ति प्राप्त होती है।
137. वापी ,कूप, जलाशय उद्यान एवं देवालयों का जीर्णोद्धार करने वाला पूर्व कर्ता कि भातीं दुगुना पुण्य प्राप्त करता है।
138. दरिद्र, सज्जन ब्राह्मण को दान, निर्जन प्रदेश में स्थित शिवलिंग का पूजन ,और अनाथ प्रेत का संस्कार - करोड़ों यज्ञों का फल प्रदान करता है ।
139. जिस कार्य को तुरंत आरंभ कर देना चाहिए, उस के संदर्भ में जो उद्योग हीन होकर बैठा है ,जहां जागते रहना चाहिए, वहां जो सोता रहे तथा भय के स्थान पर आश्वस्त होकर रहता है - ऐसा वह कौन है जो मारा नहीं जाता।
140. सत्संग और विवेक- ये दो प्राणी के मल रहित स्वस्थ नेत्र हैं। जिसके पास यह दोनों नहीं है वह मनुष्य अंधा है वह कुमार्ग पर कैसे नहीं जाएगा।
141. शास्त्र तो अनेक है किंतु आयु बहुत ही कम है और उसमें भी करोड़ों विघ्न बाधाएं हैं। इसीलिए जल में मिले हुए क्षीर को जैसे हंस ग्रहण कर लेता है वैसे ही उसके सार - तत्व को ग्रहण करना चाहिए।
142. बंधन और मोक्ष के लिए इस संसार में दो ही पद है। एक पद है, ' यह मेरा है ' इस ज्ञान से वह बॅंध जाता है। दूसरा पद है' यह मेरा नहीं है' इस ज्ञान से वह मुक्त हो जाता है।
143. दैहिक, दैविक और भौतिक इन तीनों तापों से संतप्त प्राणी को धर्म और ज्ञान जिसका पुष्प है, स्वर्ग तथा मोक्ष जिसका फल है ,ऐसे वृक्ष रूपी भगवान विष्णु की छाया का आश्रय करना चाहिए।
144. गोमय, अग्नि के दहकते अंगार, दीमक की बाॅंबी, जूते हुए खेत, जल, पवित्र स्थान ,मार्ग और मार्ग में विद्यमान वृक्ष की छाया में मल- मूत्र का परित्याग न करें।
145. मनुष्य को प्रातः काल अवश्य ही दंत धवन करना चाहिए। दंत धवन के लिए कदम्ब, बिल्व,, खैर, कनेर, बरगद ,अर्जुन, यूपी, वृहती, जाती , करंज ,अर्क,अतिमुक्तक , जामुन, महुआ ,अपामार्ग , शिरीष, गुलर बाण, दूध वाले व कटीले अन्य वृक्ष प्रशस्त होते हैं। कड़ुवे ,तीते, कसैले काष्ठ के जो वृक्ष हों, उनकी दतुअन धन-धान्य, आरोग्य व सुख से संपन्न करने वाली है। सबसे पहले दतुअन को जल से धोना चाहिए । फिर उसको दातों से चबा चबाकर मुख साफ करें और अवशिष्ट दतवन को किसी एकांत स्थान में छोड़ देना चाहिए। पुनः मुख को अच्छी प्रकार धो लेना चाहिए।
146. अमावस्या तिथि, नवमी, प्रतिपदा तिथि तथा रविवार के दिन दतुअन नहीं करना चाहिए ।
147. दतुअन के न होने पर तथा निषिद्ध तिथि के आ जाने पर मनुष्य को बारह कुल्ला जल के द्वारा मुख को पवित्र कर लेना चाहिए।
148. शौच के पश्चात मिट्टी से हाथ पैर आदि साफ करने के लिए जल के अंदर से, देवगृह, बॉंबी, चूहे के बिल, दूसरों के उपयोग में आए हुए मिट्टी से अवशिष्ट तथा श्मशान की भूमि की मिट्टी का ग्रहण न करें।
149. वसा, शुक्र, रक्त, मज्जा , विष्ठा, मूत्र, कान का मैल, कफ, आँसू, आंख का कीचड़ और पसीना यह मनुष्य के शरीर के 12 मल हैं ।जो व्यक्ति शुद्धात्मा है ,जो प्रातः काल स्नान करता है ,वह जपादिक (समस्त ऐहिक और पारलौकिक सुख प्रदान करने वाली) क्रियाओं को करने का अधिकारी है।
150. शरीर अत्यंत मलीन है। इसमें स्थित नव छिद्रों से सदा मल निकलता ही रहता है। अतः प्रातः काल का स्नान शरीर की शुद्धि का हेतु ,मन को प्रसन्न रखने वाला तथा रूप और सौभाग्य की वृद्धि करने वाला तथा सुख - दुख का विनाशक है।
151. विद्वान व्यक्ति को चाहिए कि ब्रह्मा विष्णु और शिव इन तीनों देवों के प्रति पृथक भाव न रखे।
152. माता - पिता ,गुरु,भ्राता, प्रजा, दीन,लदु:खी, आश्रित जन, अभ्यागत ,अतिथि और अग्नि - इनका पालन-पोषण मनुष्य को प्रयत्न पूर्वक करना चाहिए।
153. जेष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की हस्त नक्षत्र से युक्त दशमी तिथि में अवश्य स्नान करना चाहिए जो अनेकों पापों को भस्म कर देती है।
Conclusion:
मेरे प्रिय पाठकों! आप लोगों को यह अवश्य मानना चाहिए कि ; बाल्यावस्था के विशुद्ध अंतः करण में ईश्वर के प्रति प्रेम आसानी से उत्पन्न किया जा सकता है।
अतः आप सभी से मेरा अनुरोध है कि स्वयं को संभालने के साथ-साथ अपने अबोध बालक - बालिकाओं को अवश्य ही पवित्र जीवन यापन की कला में पारंगत कराइए। आज के समय यह दिव्य शिक्षा किसी भी स्कूल या कॉलेज में प्राप्त नहीं होगी।
यह शिक्षा मां की ममता भरी गोद में तथा पिता की ज्ञानवर्धक उपदेश आदेश और अनुशासन युक्त जीवन में ही बालक प्राप्त कर सकते हैं ।
माता-पिता का यह पुनीत कर्तव्य है कि अपने बालकों को खाने - कमाने की आधुनिक विद्या के साथ-साथ घर में अध्यात्म विद्या की शिक्षा भी अवश्य देते रहें।
Able People Encourage Us By Donating : सामर्थ्यवान व्यक्ति हमें दान देकर उत्साहित करें।
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