हरिप्रबोधनी (देव उठानी) एकादशी व्रत:
शास्त्रों के अनुसार, कार्तिक शुक्ल एकादशी "प्रबोधनी व देव उठानी" के नाम से मानी जाती है। यह तो प्रसिद्ध ही है कि आषाढ़ शुक्ल से कार्तिक शुक्ल पर्यन्त ब्रह्म, इंद्र, रुद्र, अग्नि, वरुण, कुबेर, सूर्य, सोमादि देवों और ऋषि मुनियों व भक्तों से वंदित योगेश्वर भगवान विष्णुजी क्षीरसागर में शेषशय्या पर 4 माह शयन करते हैं और भगवद्भक्त उनके शयन परिवर्तन और प्रबोध के यथोचित कृत्य, दत्तचित्त होकर यथासमय करते हैं। यद्यपि भगवान क्षण भर भी कभी सोते नहीं हैं, तथापि 'यथा देहे तथा देवे' मानने वाले उपासिकों को शास्त्रीय विधान अवश्य करना चाहिए।
हरिप्रबोधिनी एकादशी व्रत का मुहूर्त:
सन् 2022 में हरिप्रबोधिनी एकादशी व्रत 4 नवंबर दिन शुक्रवार (कार्तिक शुक्ल एकादशी) को है और यह व्रत दिन भर रखा जाना चाहिए, क्योंकि इस दिन एकादशी पूरे दिन है।
हरिप्रबोधिनी एकादशी व्रत करने की विधि:
प्रत्येक सामर्थ्यवान व्यक्ति को इस व्रत को करना चाहिए। इस व्रत को करने के लिए प्रातः नित्य कर्म आदि से निवृत्त होकर स्नानादि करके इस व्रत को करने का संकल्प करें, फिर यथा सामर्थ्य भगवान की जो भक्ति हो सके, वह प्रेम पूर्वक करें। पूजा की कुछ शास्त्रोक्त विधियाँ नीचे दी गयी हैं:
यह कृत्य कार्तिक शुक्ल एकादशी को प्रातः काल से रात्रि तक के समय में किया जाता है। शयन करते हुए श्री हरि को जगाने के लिए सुभाषित स्तोत्र पाठ, भगवत्कथा और पुराणादि का पाठ व श्रवण और भजन-कीर्तन, गायन, लीला और नाच आदि कृत्य किये जाते हैं।
साथ ही,
इन शास्त्रोक्त मंत्रों का उच्चारण करें। साथ ही भगवान के मंदिर को नाना प्रकार के पुष्प, लताओं और बंदनवार आदि से सजावें और भगवान श्री विष्णुजी की भलीभांति पूजन करें। फिर समुज्वल घी के दीपकों से या कर्पूरादि को प्रज्वलित करके भगवान की आरती उतारे।
इसके साथ साथ स्नान व दान करने का भी विशेष महत्व है। इस दिन गंगादि नदियों व तीर्थों पर स्न्नान व दर्शन पूजन करने से उत्तम पुण्य मिलता है।
भक्त प्रह्लाद, नारद, पराशर, पुंडरीक, व्यास, अंबरीष, शुक, शौनक और भीष्मादि भक्तों का स्मरण करके चरणामृत, पंचामृत व प्रसाद का वितरण करें।
इसके साथ साथ एक सुन्दर रथ में भगवान के विग्रह को विराजमान करके नर वाहन द्वारा उसे संचालित कर नगर, ग्राम या गलियों में भ्रमण कराएं। जो मनुष्य उस रथ के वाहक बन कर उसको चलाते हैं, उनको प्रत्येक पग पर यज्ञ के समान फल प्राप्त होता है। चूंकि जिस समय वामन भगवान बलिराजा से तीन पग भूमि लेकर विदा हुए, उस समय सर्वप्रथम दैत्यराज बलिराजा ने वामनरूपधारी भगवान को रथ में विराजमान कर स्वयं उसे चलाया था। अतः इस प्रकार करने से विष्णु भगवान विष्णुजी योगनिद्रा को त्याग कर संसार का पालन पोषण और संरक्षण करते हैं।
यदि प्रबोधिनी की पारण में रेवती का अंतिम तृतीयांश हो तो उसको त्याग कर भोजन करना चाहिए।स्रोत: वराहपुराण, मदनरत्न, व्रत परिचय, ठाकुर प्रसाद रुपेश पंचाङ्ग
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