श्री महाविपरीतप्रत्यंङ्गिरा विद्या: प्रस्तावना
प्रिय साधक! जैसा कि आप जानते हैं या न जानते हों तो जान लें कि श्री महाविपरीत प्रत्यंङ्गिरा स्तोत्र का अनुष्ठान या पाठ समस्त भूत-प्रेत जन्य बाधा, मुठकरणी, मेलान आदि को नष्ट करने के लिए, भूत-प्रेतों की पीड़ा व भूमिस्थापन (गडंत) को निष्फल करने के लिए, श्मशानारोहण (कृत्या जन्य उपद्रव) को समाप्त करने के लिए, किसी भी प्रकार के तांत्रिक षडयंत्र (मारण, मोहन उच्चाटन, विद्वेषण आदि) को समाप्त करने के लिए, शत्रुओं द्वारा किये गये समस्त अभिचार कर्म को नष्ट करने के लिए, अकाल मृत्यु जन्य उपद्रव को समाप्त करने के लिए, समस्त ग्रहों (ग्रह बाधा ) की शांति के लिए, समस्त दैहिक-दैवीय व भौतिक पीड़ा को समाप्त करने के लिए, भंयकर से भी भंयकर रोगों से मुक्ति के लिए, बंझापन को दूर करने के लिए किया जाता है या किसी विद्वान ब्राह्मण द्वारा कराया जाता है।
कुछ दंपत्तियों को केवल लड़की ही पैदा होती हैं, यदि गर्भ में लड़का पल रहा हो तो वह दुर्भाग्य वश (तांत्रिक षट्कर्म, भूत-प्रेत बाधा, पितृदोष, पूर्वजन्मार्जित या इस जन्म के किसी पाप आदि के कारण) गर्भापात द्वारा मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, अर्थात् उन्हें लड़का (पुत्र) पैदा नहीं होता। इस समस्या से छुटकारा पाने के लिए भी इस अनुष्ठान को कराया जाता है या स्वयं किया जाता है, और यदि दम्पत्ति सदाचार व सन्मार्ग का अनुसरण कर रहे हों तो इस अनुष्ठान के द्वारा इस समस्या से छुटकारा भी अवश्य मिलता है, इसमें कोई सन्देह नहीं।
इस श्री महाविपरीत प्रत्यंगिरा विद्या का अनुष्ठान समस्या की प्रबलता के अनुसार मुख्यतः एकदिवसीय, पाँच दिवसीय या सात दिवसीय का कराया जाता है। दिन की संख्या का भी अपना अलग प्रभाव होता है और पाठ की संख्या का भी अपना कुछ विशेष महत्व होता है। विद्वान ब्राह्मण इस विषय के ज्ञाता होते हैं।
यदि आप सदाचार व सन्मार्ग पर चल रहे हैं तो आप व आपका परिवार उपरोक्त समस्याओं से बचा रहेगा व सुख-शांति सदैव बनी रहेगी। अगर दैव वश इस अनुष्ठान से भी आपके समस्या का समाधान न हो, तो आप अपनी आस्था को न तोड़ें; हो सकता है अनुष्ठान में कोई त्रुटि हुई हो या आपमें या आपके परिवार में कोई गलती हो अथवा और कोई अन्य कारण।
इस लेख में हमने माता महाविपरीत प्रत्यंङ्गिरा जी के स्तोत्र का बिल्कुल शुद्ध रूप और इस स्त्रोत के प्रयोग की अचूक विधि को प्रस्तुत किया है, क्योंकि वर्तमान में श्री महाविपरीत प्रत्यंङ्गिरा स्तोत्र को प्रकाशित करने वाले सभी प्रकाशक प्रेश कुछ न कुछ अंश गलत छाप दे रहे हैं और कुछ अंश को गायब कर दिए रहते हैं, और इसका परिणाम यह होता है कि जब ब्राह्मण लोग अपने किसी यजमान के यहां श्री महाविपरीत प्रत्यंङ्गिरा स्तोत्र का पाठ या अनुष्ठान करते हैं तो अशुद्ध व त्रुटिपूर्ण पाठ के कारण यजमान को विशेष लाभ नहीं मिल पाता या वह अनुष्ठान निष्फल हो जाता है अथवा पीड़ित व्यक्ति स्वयं जब उस त्रुटिपूर्ण स्तोत्र का पाठ करता है, तो उसे कोई विशेष लाभ नहीं मिलता। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मुझे प्रत्यंगिरा विद्या का कुछ विशेष अनुभव है। चूंकि अन्य विद्वान लोगों के अपने कुछ अलग अनुभव हो सकते हैं।
चूंकि श्री महाविपरीतप्रत्यंङ्गिरा स्तोत्र स्वयं भगवान शंकर जी द्वारा कहा गया है, अतः यदि श्री महाविपरीत प्रत्यंङ्गिरा स्तोत्र का अनुष्ठान पीड़ित व्यक्ति किसी ब्राह्मण द्वारा करा रहा है या स्वयं कर रहा है और वह व उसका परिवार शाकाहारी है व सदाचार के रास्ते पर चल रहा है तो इस अनुष्ठान के द्वारा विशेष लाभ मिलना चाहिये, क्योंकि प्रत्यंगिरा विद्या अचूक है। अगर इस अनुष्ठान के द्वारा कोई विशेष लाभ नहीं मिला तो इसके कई कारण हो सकते हैं, जिसमें से दो कारण प्रमुख हैं -
1. अनुष्ठान त्रुटिपूर्ण हुआ हो, जैसे कि गलत या त्रुटिपूर्ण उच्चारण या पूजा व हवन इत्यादि की गलत विधि।
2. अनुष्ठान के हो जाने के बाद भी कुकर्म में लिप्त रहना या परिवार का गलत रास्ते पर चलना, जैसे- ओझाई-सोखाई कराना, किसी गलत देवी-देवता/भूत-प्रेत की पूजा करना व बलि देना, सदाचार व सन्मार्ग का पालन न करना ।
श्री महाविपरीत प्रत्यंगिरा अनुष्ठान की विशेष बातें:
1. यदि आप अनुष्ठान करने वाले ब्राह्मण हैं या अनुष्ठान कराने वाला यजमान हैं तो आपको यह अवश्य जानने का प्रयास करना चाहिये कि किताब में छपा हुआ श्री महाविपरीत प्रत्यंङ्गिरा स्तोत्र में कहीं कोई त्रुटि तो नहीं न है या पूजा-हवन की विधि सही है कि नहीं, क्योंकि कितनी ही किताबों में मूलमंत्र ही गलत छपा रहता है, व स्तोत्र का कुछ अंश गलत छापा रहता है और कुछ अंश को गायब रहता है। कुछ पाठ करने वाले विद्वान लोग जल्दबाजी में उच्चारण ही गलत करते हैं या अनेक शब्दों व बीजमंत्रों को आपस में लपेट कर पढ़ते हैं। कुछ विद्वान लोग पूजा-हवन में ही त्रुटि (गलती) कर देते हैं । अतः यदि कोई त्रुटि है तो उसे अवश्य सुधारें।
इस अनुष्ठान में भी पूजा-पाठ-जप-हवन के सम्पूर्ण नियमों का यथासंभव पालन अवश्य करें।
2. श्री विपरीत प्रत्यंगिरा विद्या का जब अनुष्ठान किया जाता है, तो उसमें मुख्य रूप से मूलमंत्र, श्री विपरीत प्रत्यङ्गिरा लघु स्तोत्र और श्री विपरीत प्रत्यङ्गिरा दीर्घ स्तोत्र (श्री विपरीत प्रत्यङ्गिरा स्त्तोत्र माला मन्त्र) का पाठ करके पूरे पाठ का निर्देशित हवि से दशांश हवन किया जाता है।
3. कुछ विद्वानों द्वारा पाठ के अन्त में 'श्री विपरीत प्रत्यङ्गिरा कवच' का भी एक या दस की संख्या में पाठ किया जाता है; और यह जायज भी है, परन्तु आवश्यक नहीं।
4. विधिपूर्वक प्रतिदिन केवल श्री विपरीत प्रत्यङ्गिरा दीर्घ स्तोत्र (श्री विपरीत प्रत्यङ्गिरा स्त्तोत्र माला मन्त्र) का कम से कम दस बार व अधिक से अधिक अच्छी संख्या (21, 27, 36, 54, 108 आदि) में पाठ व दशांश हवन करने से उपरोक्त समस्त समस्याओं से मुक्ति मिल जाती है। पीड़ित व्यक्ति स्वयं या उसके परिवार का कोई योग्य सदस्य भी माता श्री विपरीत प्रत्यङ्गिरा जी का पंचोपचार/षोडशोपचार पूजन करके इसी प्रकार विधि पूर्वक पाठ व हवन करके उपरोक्त समस्याओं से छुटकारा पा सकता है। स्वयं हवन करने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं है।
5. संकल्प करते समय केवल सतत् आरोग्यता, दैवीय, दैहिक, भौतिक त्रिविध ताप समनार्थं, नवग्रह दोष पीड़ा निवारण आदि का ही संकल्प करें। किसी व्यक्ति विशेष के विनाश के लिए या किसी देवी-देवता या भूत-प्रेत आदि के विनाश के लिए संकल्प न करें, क्योंकि माता श्री महाविपरीत प्रत्यङ्गिरा देवी जी को अधिक बताने की आवश्यकता नहीं है, उनके स्तोत्र में हर प्रकार के कष्टदायक कारकों को नष्ट करने का जिक्र है; अत: आपके दुख का कारण/हेतु चाहे कुछ भी हो, माता श्री महाविपरीत प्रत्यङ्गिरा देवी जी आपके दुख के कारण को अवश्य समाप्त कर देंगी।
6. अनुष्ठान के समय यदि पूजा स्थल पर पर्याप्त मात्रा में जगह हो तो गौरी-गणेश स्थापन व आवाहन, कलश स्थापन व पूजन, नवग्रह स्थापन-आवाहन व पूजन, षोडश मातृका स्थापन-आवाहन व पूजन, घृत मातृका स्थापन-आवाहन व पूजन के साथ माता श्री विपरीत महाप्रत्यङ्गिरा देवी जी का स्थापन-आवाहन व पूजन करना चाहिए।
माता श्री विपरीत महाप्रत्यङ्गिरा देवी जी की विस्तृत स्थापना के लिए श्री विपरीत महाप्रत्यङ्गिरा देवी जी की एक फोटो बनवा लें। पर्याप्त जगह के साथ उचित आसन पर उसको प्रतिष्ठित करें। फिर अक्षत (लाल चन्दन या कुंकुम या हल्दी से रंगे हुए चावल) के द्वारा श्री विपरीत महाप्रत्यङ्गिरा देवी जी के चारों ओर दसों दिशाओं में निम्नलिखित मन्त्रों से दस देवियों की स्थापना करें-
* ॐ भुवनेशी देव्यै नम: । भुवनेशी देव्यै आवाहयामि स्थापयामि । (पूर्व दिशा में)
* ॐ कालिका देव्यै नम: । कालिका देव्यै आवाहयामि स्थापयामि । (दक्षिण दिशा में)
* ॐ नाक्षत्री देव्यै नम: । नाक्षत्री देव्यै आवाहयामि स्थापयामि । (पश्चिम दिशा में)
* ॐ भैरवी देव्यै नम: । भैरवी देव्यै आवाहयामि स्थापयामि । (उत्तर दिशा में)
* ॐ प्रचण्ड चण्डिका देव्यै नम: । प्रचण्ड चण्डिका देव्यै आवाहयामि स्थापयामि । (ईशान कोण में)
* ॐ बगला देव्यै नम: । बगला देव्यै आवाहयामि स्थापयामि । (आग्नेय कोण में)
* ॐ मतंगिनी देव्यै नम: । मतंगिनी देव्यै आवाहयामि स्थापयामि । (नैर्ऋत्य कोण में)
* ॐ धूमावती देव्यै नम: । धूमावती देव्यै आवाहयामि स्थापयामि । (वायव्य कोण में)
* ॐ सुन्दरी देव्यै नम: । सुन्दरी देव्यै आवाहयामि स्थापयामि । (ऊपर दिशा का ध्यान करके वहीं बगल में)
* ॐ सुन्दरी देव्यै नम: । सुन्दरी देव्यै आवाहयामि स्थापयामि । (नीचे की दिशा का ध्यान करके वहीं बगल में)
* ॐ षोडशी देव्यै नम: । षोडशी देव्यै आवाहयामि स्थापयामि । (सामने या सम्मुख में)
* ॐ महात्रिपुरसुन्दरी देव्यै नम: । महात्रिपुरसुन्दरी देव्यै आवाहयामि स्थापयामि । (वाम या बायें भाग में)
अब सभी आवहित देवी-देवताओं का यथा सामर्थ्य षोडशोपचार पूजन वंदन करें।
7. विनियोग, करन्यासादि करने के बाद पाठ करें, और जहाँ तक हो सके विनियोग कर लेने के बाद मन्त्र जप या पाठ की पूर्णता तक बीच में कोई फालतू/अनावश्यक बात न करें।
8. चंकि श्री विपरीत महाप्रत्यङ्गिरा देवी जी का स्तोत्र वाचिक (कुछ तेज आवाज के साथ पढ़ा जाने वाला) है; अतः स्तोत्र को कुछ तेज आवाज के साथ बोलकर पढ़ें व मन्त्र और स्तोत्र के प्रत्येक शब्द व बीजमन्त्रों का उच्चारण बिल्कुल सही व स्पष्ट करें।
जल्दबाजी वश या थकावट के कारण अथवा आलस्य के कारण शब्दों का आपस में लपेटकर अशुद्ध रूप से न पढ़े । बहुत धीमी आवाज में भी पाठ नहीं करना चाहिए।
9. श्री विपरीत प्रत्यङ्गिरा विद्या का प्रयोग केवल वही लोग करें, जिन्होंने इनके मूलमंत्र और स्तोत्र को सिद्ध किया हो। यदि आप स्वयं पीड़ित व्यक्ति हैं और श्री विपरीत प्रत्यङ्गिरा विद्या का स्वयं प्रयोग करना चाहते हैं तो आप पहले इस विद्या को सिद्ध कर लें; चूंकि जब आप इस विद्या को सिद्ध करने लगेंगे, तभी से आपकी समस्याओं पर रोकथाम लगना शुरू हो जाएगा और समस्या समाप्त होने लगेगी।
श्री विपरीत प्रत्यङ्गिरा विद्या को 21 दिनों तक जप-पाठ और उसका दशांश हवन करके सिद्ध करने का विधान है, जिसमें प्रतिदिन मूलमंत्र का 10 माला जप व श्री विपरीत प्रत्यङ्गिरा लघु स्तोत्र और श्री विपरीत प्रत्यङ्गिरा दीर्घ स्तोत्र का दस-दस पाठ करके 21वें दिन दशांश हवन किया जाता है।
दीपावली की रात या नवरात्री के अष्टमी तिथि की रात्रि में मूलमंत्र का दस माला जप व श्री विपरीत प्रत्यङ्गिरा लघु स्तोत्र और श्री विपरीत प्रत्यङ्गिरा दीर्घ स्तोत्र का दस-दस पाठ करके दशांश हवन करने से एक ही दिन में सिद्धि प्राप्त होती है अर्थात् एक ही दिन में यह विद्या सिद्ध हो जाती है।
ग्रहण के समय, ग्रहण काल तक केवल अनगिनत जप व पाठ से ही यह विद्या सिद्ध हो जाती है, अर्थात् ग्रहण काल में इस विद्या को सिद्ध करने के लिए हवन की आवश्यकता नहीं होती है।
10. श्री विपरीत प्रत्यंङ्गिरा मन्त्र व स्तोत्र में जहां-जहां पर "मम" शब्द का प्रयोग हुआ है, यदि रोगी स्वयं पाठ या जप करता है, तो वह मम शब्द का प्रयोग करे, अन्यथा वहां पर रोगी व्यक्ति का नाम विभक्ति के अनुसार लेने का विधान है। ऐसा न करने पर अनुष्ठान सफल नहीं होता या पूर्ण प्रभाव नहीं पड़ता। उस मूलमंत्र और स्तोत्र का सही (त्रुटि रहित) रूप इस प्रकार हैं -
श्री महाविपरीत प्रत्यङ्गिरा मूलमंत्र:
विनियोग:
ॐ अस्य श्री महाविपरीत-प्रत्यङ्गिरामन्त्रस्य भैरव ऋषि:, अनुष्टुप् छन्द:, श्री महाविपरीतप्रत्यङ्गिरा देवता, ममाऽभिष्ट सिद्ध्यर्थे जपे विनियोग:।
करन्यास:
ॐ ऐं अङ्गुष्ठाभ्यां नम:। (मन्त्र बोलते हुए दोनों हाथों के अंगुठे का स्पर्श करें)
ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नम:। (मन्त्र बोलते हुए दोनों हाथों की तर्जनी अंगुली का स्पर्श करें)
ॐ श्रीं मध्यमाभ्यां नम:। (मन्त्र बोलते हुए दोनों हाथों की मध्यमा अंगुली का स्पर्श करें)
ॐ प्रत्यङ्गिरे अनामिकाभ्यां नम:। (मन्त्र बोलते हुए दोनों हाथों की अनामिका अंगुली का स्पर्श करें)
ॐ मां रक्ष रक्ष कनिष्ठिकाभ्यां नम:। (मन्त्र बोलते हुए दोनों हाथों की कनिष्ठिका अंगुली का स्पर्श करें)
ॐ मम शत्रून् भञ्जय भञ्जय करतलकरपृष्ठाभ्यां नम:। (मन्त्र बोलते हुए दोनों हाथों की हथेलियों और उनके पृष्ठ भागों का स्पर्श करें ।)
हृदयादिन्यास:
ॐ ऐं हृदयाय नम:। (मन्त्र बोलते हुए हृदय भाग का स्पर्श करें)
ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा। (मन्त्र बोलते हुए सिर का स्पर्श करें)
ॐ श्रीं शिखायै वषट्। (मन्त्र बोलते हुए शिखा का स्पर्श करें)
ॐ प्रत्यङ्गिरे कवचाय हुम्। (मन्त्र बोलते हुए दोनों हाथों की भुजाओं या कन्धों का स्पर्श करें)
ॐ मां रक्ष रक्ष नेत्रत्रयाय वौषट्। (मन्त्र बोलते हुए दोनों नेत्रों का स्पर्श करें)
ॐ मम शत्रून् भञ्जय भञ्जय अस्त्राय फट्। (मन्त्र बोलते हुए दाहिने हाथ की तर्जनी और मध्यमा अंगुली से सिर के ऊपर से चारों तरफ एक बार घुमाकर बायें हाथ पर एक बार कुछ जोर से ताली बजा दें।)
दिग्बन्ध:
"ॐ भूर्भुव: स्व:" मन्त्र बोलते हुए दसों दिशाओं में एक एक बार चुटकी बजा दें।
ध्यान: हाथ में अक्षत (हल्दी में रंगा हुआ चावल) व लाल पुष्प (गुड़हल आदि) लेकर माता श्री विपरीत प्रत्यङ्गिरा जी का ध्यान करें।
टङ्कं कपालं डमरुं त्रिशूलं सम्बिभ्रती चन्द्रकलावतंसा।
पिंगोर्ध्वकेशोऽसित-भीमदंष्ट्रा भूयाद् विभूत्यै मम भद्रकाली।।
अर्थ- तलवार, खड्ग, डमरू, त्रिशूल और चन्द्रहास को धारण की हुई, उठे हुए पीले केश वाली एवं भयंकर काले दाँतों वाली माता भद्रकाली जी मेरा कल्याण करें।
मूलमंत्र -
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं प्रत्यङ्गिरे मां रक्ष रक्ष मम शत्रून् भञ्जय भञ्जय फे हुँ फट् स्वाहा।
Note- इस अनुष्ठान में मूलमंत्र का प्रतिदिन कम से कम 10 माला व अधिक से अधिक अच्छी संख्या (21, 27, 36, 54, 108 आदि) में जप करना चाहिये व उसका दशांश हवन करना चाहिये। पीड़ित व्यक्ति स्वयं या उसके परिवार का कोई योग्य सदस्य माता श्री विपरीत प्रत्यङ्गिरा जी (भगवती काली या भद्रकाली जी) का पंचोपचार/षोडशोपचार पूजन करके इसी प्रकार मूलमंत्र का जप व यदि सामर्थ्य हो तो विधि पूर्वक हवन करके उपरोक्त समस्याओं से छुटकारा पा सकता है।
श्री विपरीत प्रत्यङ्गिरा लघु स्तोत्र:
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ कुं कुं कुं मां सां खां चां लां क्षां ॐ ह्रीं ह्रीं ॐ ॐ ह्रीं वां धां मां सां रक्षा कुरु । ॐ ह्रीं ह्रीं ॐ स: हुं ॐ क्षौं वां लां धां मां सां रक्षां कुरु । ॐ ॐ हुं प्लुं रक्षां कुरु ।
ॐ नमो विपरीतप्रत्यङ्गिरायै विद्याराज्ञि त्रैलोक्यवशङ्करि तुष्टि-पुष्टि करि सर्वपीडापहारिणि सर्वापन्नाशिनि सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिनि मोदिनि सर्वशास्त्राणां भेदिनि क्षोभिणि तथा पर मन्त्र-तन्त्र-यन्त्र-विष-चूर्ण-सर्व-प्रयोगादीनन्येषां निर्वर्तयित्वा यत्कृतं तन्मेऽस्तु कलिपातिनि सर्वहिंसा मा कारयति अनुमोदयति मनसा वाचा कर्मणा ये देवाऽसुर राक्षसास्तिर्यग्योनिसर्वहिंसका विरुपकं कुर्वन्ति मम मन्त्र-तन्त्र-यन्त्र-विष-चूर्ण-सर्व-प्रयोगादीनात्महस्तेन य: करोति करिष्यति कारयिष्यति तान् सर्वानन्येषां निर्वर्तयित्वा पातय कारय मस्तके स्वाहा।
Note- इस श्री विपरीत प्रत्यङ्गिरा लघु स्तोत्र का अलग से कोई विनियोगादि नहीं है और मूलमंत्र के जप के तुरन्त बाद ही इसके पाठ का विधान है। सोने पर सुहागा के लिए इसका पाठ भी कर लेना चाहिये। इसका प्रतिदिन कम से कम 10 बार पाठ करना चाहिये व उसका दशांश हवन करना चाहिये। चंकि इस श्री विपरीत प्रत्यङ्गिरा लघु स्तोत्र में एक ही बार स्वाहा शब्द का प्रयोग हुआ है, अतः हवन करते समय पूरा लघु स्तोत्र पढ़कर ही हवि को हवन अग्नि में डालना चाहिये।
श्री महाविपरीत प्रत्यङ्गिरा दीर्घ स्तोत्र:
श्री विपरीत प्रत्यङ्गिरा दीर्घ स्तोत्र में मुख्य रूप से क्रमानुसार पाँच भाग होते हैं- पीठिका, गुरूमन्त्र, मालामन्त्र, मातृका और फलश्रुति।
अनुष्ठान के समय या स्वयं पाठ करते समय प्रतिदिन पीठिका (पाठ की शुरुआत में) और फलश्रुति (पाठ के अंत में) का पाठ केवल एक बार किया जाता है, जबकि गुरुमंत्र का 100 बार जप करके पीली सरसों द्वारा दिग्बंधन किया जाता है, और मालामन्त्र व मातृका का कम से कम दस बार पाठ किया जाता है। हवन केवल गुरूमन्त्र, मालामन्त्र व मातृका द्वारा ही सम्पन्न किया जाता है। विधि के साथ सम्पूर्ण स्तोत्र इस प्रकार है -
पीठिका:
महेश्वर उवाच
श्रृणु देवि! महाविद्यां सर्वसिद्धिप्रदायिकाम्।
यस्य विज्ञानमात्रेण शत्रुवर्गा लयं गता:।।1।।
विपरीतमहाकाली सर्वभूतभयंकरी।
यस्या: प्रसङ्गमात्रेण कम्पते च जगत्त्रयम्।।2।।
न च शान्तिप्रदः कोऽपि, परमेशो न चैव हि।
देवताः प्रलयं यान्ति किं पुनर्मानवादयः।।3।।
पठनाद् धारणाद्देवि! सृष्टि-संहारको भवेत्।
अभिचारादिकाः सर्वा या या साध्यतमाः क्रियाः।
स्मरेणन महा-काल्याः नाशं जग्मुः सुरेश्वरि।।4।।
सिद्धिविद्या महाकाली यत्रेवेह च मोदते।
सप्तलक्षमहाविद्या गोपिताः परमेश्वरि!।।5 ।।
महाकाली महादेवी ! शंकरश्रेष्ठदेवता:।
यस्याः प्रसादमात्रेण परब्रह्म महेश्वरः।।6।।
कृत्रिमादि-विषघ्नीशा प्रलयादि निवर्त्तिका।।7।।
त्वदङ्घ्रिदर्शनादेव कम्पमानो महेश्वरः।
यस्य निग्रहमात्रेण पृथिवी प्रलयं गता।।8।।
दशविद्या सदा ज्ञाता दशद्वारसमाश्रिता।
प्राचीद्वारे भुवनेशी दक्षिणे कालिका तथा।।9।।
नाक्षत्री पश्चिमे च उत्तरे भैरवी तथा।
ऐशान्यां सततं देवि! प्रचण्डचण्डिका तथा।।10।।
आग्नेय्यां बगलादेवी रक्षःकोणे मतंगिनी।
धूमावती च वायवे अधऊर्ध्वे च सुन्दरी।।11।।
सम्मुखे षोडशी देवी जाग्रत्-स्वप्न-स्वरुपिणी।
वामभागे च देवेशी महात्रिपुरसुन्दरी।।12।।
अंशरुपेण देवेशी सर्वा देव्यः प्रतिष्ठिताः।
महाप्रत्यंगिरा चैव प्रत्यङ्गिरा तथोदिता।।13।।
महाविष्णुर्यदा ज्ञाता भुवनानां महेश्वरि।
कर्ता पाता च संहर्ता सत्यं सत्यं वदामि ते।।14।।
भुक्ति-मुक्तिप्रदा देवी! महाकाली सुनिश्चितम्।
वेदशास्त्र-प्रगुप्ता सा, न दृश्या देवतैरपि।।15।।
अनन्तकोटिसूर्याभा सर्वभूतभयंकरी।
ध्यानज्ञानविहीना सा, वेदान्तामृतवर्षिणी।।16।।
सर्वमन्त्रमयी काली निगमाऽगमकारिणी।
निगमाऽगमकारी सा महाप्रलयकारिणी।।17।।
यस्याऽङ्गधर्मलवा च सा गंगा परमोदिता।
महाकाली नगेन्द्रस्था विपरीता महोदया।।18।।
विपरीता प्रत्यंगिरा तत्र काली प्रतिष्ठिता।
साधकस्मरणमात्रेण शत्रूणां निगमागमाः।।19।।
नाशं जग्मुः नशीं जग्मु: सत्यं सत्यं वदामि ते।
परब्रह्म महादेवि पूजनैरीश्वरो भवेत्।।20।।
शिवकोटिसमो योगी विष्णुकोटिसमः स्थिरः।
सर्वैराराधिता सा वै भुक्ति-मुक्तिप्रदायिनी।।21।।
गुरुमन्त्रशतं जप्त्वा श्वेतसर्षपमानयेत्।
दशदिशो विकिरेत् तान् सर्वशत्रुक्षयाप्तये।।22।।
भक्तरक्षां शत्रुनाशं सा करोति च तत्क्षणात्।
ऋषिन्यासादिकं कृत्वा सर्षपैर्मारणं चरेत्।।23।।
गुरुमन्त्र:
“ॐ हुँ स्फारय स्फारय मारय मारय शत्रुवर्गान् नाशय नाशय स्वाहा।"
Note: सामने किसी पात्र में पीली सरसों की कुछ मात्रा (लगभग 10 ग्राम) रखे रहें; पीठिका पढ़ने के बाद अब गुरुमन्त्र का 100 बार (108 बार नहीं करना है) जप करके तुरन्त अपने चारों ओर दसों दिशाओं में एक-एक चुटकी पीली सरसों फेंक दें और अगर सम्भव हो तो परिवार के किसी सदस्य (सदस्य स्नान किया हुआ व पवित्र अवस्था में होना चाहिये) द्वारा पूरे घर में उस बचे हुए सरसों को छिंटवा दें । फिर अब आगे विनियोगादि कर्म करके मालामंत्र का पाठ शुरू करें।
मालामन्त्र के प्रत्येक पाठ के अन्त में मातृका का पाठ अवश्य करें और इस तरह इसका (मालामन्त्र + मातृका का) कम से कम दस पाठ करना अनिवार्य होता है।
विनियोगः
ॐ अस्य श्रीमहाविपरीतप्रत्यंगिरा स्तोत्रमालामन्त्रस्य श्रीमहाकालभैरव ऋषिः त्रिष्टुप् छन्दः श्रीमहाविपरीतप्रत्यंगिरा देवता हूँ बीजं ह्रीं शक्तिः क्लीं कीलकं मम श्रीमहाविपरीतप्रत्यंगिरा प्रसादात् सर्वत्र सर्वदा सर्व-विध-रक्षा-पूर्वक सर्वशत्रूणां नाशार्थे यथोक्तफल प्राप्त्यर्थे वा पाठे विनियोगः ।
ऋष्यादिन्यासः
मुखे त्रिष्टुप् छन्दसे नमः।
हृदि श्रीमहाविपरीतप्रत्यंगिरा देवतायै नमः।
गुह्ये हूँ बीजाय नमः।
पादयोः ह्रीं शक्तये नमः।
नाभौ क्लीं कीलकाय नमः।
सर्वांगे मम श्रीमहाविपरीतप्रत्यंगिरा प्रसादात् सर्वत्र सर्वदा सर्व-विध-रक्षा-पूर्वक सर्वशत्रूणां नाशार्थे यथोक्तफलप्राप्त्यर्थे वा पाठे विनियोगाय नमः।
करन्यासः
हूँ ह्रीं क्लीं ॐ तर्जनीभ्यां नमः।
हूँ ह्रीं क्लीं ॐ मध्यमाभ्यां नमः।
हूँ ह्रीं क्लीं ॐ अनामिकाभ्यां नमः।
हूँ ह्रीं क्लीं ॐ कनिष्ठिकाभ्यां नमः।
हूँ ह्रीं क्लीं ॐ करतलकरपृष्ठाभ्याम नमः।
हृदयादिन्यासः
हूँ ह्रीं क्लीं ॐ शिरसे स्वाहा।
हूँ ह्रीं क्लीं ॐ शिखायै वषट्।
हूँ ह्रीं क्लीं ॐ कवचाय हुम्।
हूँ ह्रीं क्लीं ॐ नेत्रत्रयाय वौषट्।
हूँ ह्रीं क्लीं ॐ अस्त्राय फट्।
मालामन्त्र:
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ नमो विपरीत-प्रत्यंगिरायै सहस्त्रानेककार्यलोचनायै कोटि विद्युज्जिह्वायै महाव्यापिन्यै संहाररुपायै जन्मशान्तिकारिण्यै मम सपरिवारकस्य भावि-भूत-भवच्छत्रून्-दारापत्यान् संहारय संहारय महाप्रभावं दर्शय दर्शय हिलि हिलि किलि किलि मिलि मिल, चिलि चिलि भूरि भूरि विद्युज्जिह्वे ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ध्वंसय ध्वंसय प्रध्वंसय प्रध्वंसय ग्रासय ग्रासय पिब पिब नाशय नाशय त्रासय त्रासय वित्रासय वित्रासय मारय मारय विमारय विमारय भ्रामय भ्रामय विभ्रामय विभ्रामय द्रावय द्रावय विद्रावय विद्रावय हूँ हूँ फट् स्वाहा।।
हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ विपरीतप्रत्यंगिरे हूँ लँ ह्रीं लँ क्लीं लँ ॐ लँ फट् फट् स्वाहा।
हूँ लँ ह्रीं क्लीं ॐ विपरीतप्रत्यंगिरे मम सपरिवारकस्य यावच्छत्रून् देवता-पितृ-पिशाच-नाग-गरुड़-किन्नर-विद्याधर-गन्धर्व-यक्ष-राक्षस-लोकपालान्-ग्रह-भूत-नर-लोकान् समन्त्रान् सौषधान् सायुधान् स-सहायान् बाणै छिन्दि छिन्दि भिन्धि भिन्धि निकृन्तय निकृन्तय छेदय छेदय उच्चाटय उच्चाटय मारय मारय तेषां साऽहंकारादिधर्मान् कीलय कीलय घातय घातय नाशय नाशय विपरीत-प्रत्यंगिरे स्फ्रें स्फ्रेत्कारिणी ॐ ॐ जँ ॐ ॐ जँ ॐ ॐ जँ ॐ ॐ जँ ॐ ॐ जँ ॐ ठः ॐ ठः ॐ ठः ॐ ठः ॐ ठः मम सपरिवारकस्य शत्रूणां सर्वा विद्याः स्तम्भय स्तम्भय नाशय नाशय हस्तौ स्तम्भय स्तम्भय नाशय नाशय मुखं स्तम्भय स्तम्भय नाशय नाशय नेत्राणि स्तम्भय स्तम्भय नाशय नाशय दन्तान् स्तम्भय स्तम्भय नाशय नाशय जिह्वां स्तम्भय स्तम्भय नाशय नाशय पादौ स्तम्भय स्तम्भय नाशय नाशय गुह्यं स्तम्भय स्तम्भय नाशय नाशय सकुटुम्बानां स्तम्भय स्तम्भय नाशय नाशय स्थानं स्तम्भय स्तम्भय नाशय नाशय सँ प्राणान् कीलय कीलय नाशय नाशय हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ फट् फट् स्वाहा।
मम सपरिवारकस्य सर्वतो रक्षां कुरु कुरु, फट् फट् स्वाहा।
ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ऐं ह्रूँ ह्रीं क्लीं हूँ सों विपरीतप्रत्यंगिरे! मम सपरिवारकस्य भूत-भविष्यच्छत्रूणामुच्चाटनं कुरु कुरु हूँ हूँ फट् स्वाहा।
ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं वँ वँ वँ वँ वँ लँ लँ लँ लँ लँ रँ रँ रँ रँ रँ यँ यँ यँ यँ यँ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ नमो भगवति विपरीतप्रत्यंगिरे दुष्ट-चाण्डालिनि, त्रिशूल-वज्रांकुश-शक्ति-शूल-धनुः-शर-पाशधारिणि, शत्रुरुधिर-चर्ममेदो-मांसाऽस्थि-मज्जा-शुक्र-मेहन-वसा-वाक्-प्राण-मस्तक-हेत्वादिभक्षिणी परब्रह्मशिवे ज्वालादायिनी ज्वालामालिनी शत्रूच्चाटन-मारण-क्षोभन-स्तम्भन-मोहन-द्रावण-जृम्भण-भ्रामण-रौद्रण-सन्तापन-यन्त्र-मन्त्र-तन्त्रान्तर्याग-पुरश्चरण-भूतशुद्धि-पूजाफल-परमनिर्वाण-हारणकारिणि कपालखट्वाङ्ग-परशुधारिणी मम सपरिवारकस्य भूत-भविष्यच्छत्रुन् स-सहायान् सवाहनान् हन हन रण रण दह दह दम दम धम धम पच पच मथ मथ लङ्घय लङ्घय खादय खादय चर्वय चर्वय व्यथय व्यथय ज्वरय ज्वरय मूकान् कुरु कुरु ज्ञानं हर हर हूँ हूँ फट् फट् स्वाहा।।
ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ विपरीतप्रत्यंगिरे ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ फट् स्वाहा।
मम सपरिवारकस्य कृत मन्त्र-यन्त्र-तन्त्र-हवन-कृतौषध-विषचूर्ण-शास्त्राद्यभिचार-सर्वोपद्रवादिकं येन कृतं कारितं कुरुते करिष्यति वा तान् सर्वान् हन हन स्फारय स्फारय सर्वतो रक्षां कुरु कुरु हूँ हूँ फट् फट् स्वाहा।
हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ फट् फट् स्वाहा।।
ॐ हूँ ह्रीं क्लीं ॐ अं विपरीत प्रत्यंगिरे मम सपरिवारकस्य शत्रवः कुर्वन्ति करिष्यन्ति शत्रुश्च कारयामास कारयन्ति कारयिष्यन्ति याऽन्यां कृत्यान्तैः सार्धं तांस्तां विपरीतां कुरु कुरु नाशय नाशय मारय मारय श्मशानस्थानं कुरु कुरु कृत्यादिकां क्रियां भावि-भूत-भवच्छत्रूणां यावत् कृत्यादिकां क्रियां विपरीतां कुरु कुरु तान् डाकिनीमुखे हारय हारय भीषय भीषय त्रासय त्रासय मारय मारय परमशमनरुपेण हन हन धर्मावच्छिन्न-निर्वाणं हर हर तेषां इष्टदेवानां शासय शासय क्षोभय क्षोभय प्राणादि-मनोबुद्ध्यहंकार-क्षुतृष्णाकर्षण-लयन-आवागमन-मरणादिकं नाशय नाशय हूँ हूँ ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ फट् फट् स्वाहा।
क्षँ ळँ हँ सँ षँ शँ वँ लँ रँ यँ मँ भँ बँ फँ पँ नँ धँ दँ थँ तँ णँ ढँ डँ ठँ टँ ञँ झँ जँ छँ चँ ङँ घँ गँ खँ कँ अः अँ औं ओं ऐं एँ ळृँ लृँ ऊँ उँ ईं इँ आँ अँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ विपरीतप्रत्यंगिरे हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ फट् फट् स्वाहा।।
क्षं ळं हं सं षं शं वं लं रं यं मं भं बं फं पं नं धं दं थं तं णं ढं डं ठं टं ञं झं जं छं चं ङं घं गं खं कं अः अं औं ओं ऐं एं ळृं लृं ऋृं ऋं ऊं उं ईं इं आं अं हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ फट् फट् स्वाहा ।।
अः अं औं ओं ऐं एं ळृं लृं ऋं ऋृं ऊं उं ईं इं आं अं ङं घं गं खं कं ञं झं जं छं चं णं ढं डं ठं टं नं धं दं थं तं मं भं बं फं पं वं लं रं यं क्षं लं हं सं षं शं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ मम सपरिवारकस्य स्थाने शत्रूणां कृत्यान् सर्वान् विपरीतान् कुरु कुरु तेषां तन्त्र-मन्त्र-तन्त्रार्चन-श्मशानारोहण-भूमिस्थापन-भस्मप्रक्षेपण-पुरश्चरण-होमाभिषेकादिकान् कृत्यान् दूरी कुरु कुरु नाशं कुरु कुरु हूँ विपरीतप्रत्यंगिरे मां सपरिवारकं सर्वतः सर्वेभ्यो रक्ष रक्ष हूँ ह्रीं फट् स्वाहा ।।
अंआं इं ईं उं ऊं ऋं ऋृं लृं ळृं एं ऐं ओं औं अं अः कं खं गं घं ङं चं छं जं झं ञं टं ठं डं ढं णं तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं यं रं लं वं शं षं सं हं लं क्षं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ हूँ ह्रीं क्लीं ॐ विपरीतप्रत्यंगिरे हूँ ह्रीं क्लीं ॐ फट् स्वाहा।
ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ऋृं लृं ळृं एं ऐं ओं औं अं अः कं खं गं घं ङं चं छं जं झं ञं टं ठं डं ढं णं तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं यं रं लं वं शं षं सं हं ळं क्षं विपरीतप्रत्यंगिरे मम सपरिवारकस्य शत्रूणां विपरीतक्रियां नाशय नाशय त्रुटिं कुरु कुरु तेषामिष्टदेवतादि विनाशं कुरु कुरु सिद्धिम् अपनयापनय विपरीतप्रत्यंगिरे शत्रुमर्दिनि भयंकरि नानाकृत्यादिमर्दिनि ज्वालिनि महाघोरतरे त्रिभुवनभयंकरि शत्रूणां मम सपरिवारकस्य चक्षुः श्रोत्रादि पादौं सर्वतः सर्वेभ्यः सर्वदा रक्षां कुरु कुरु स्वाहा।।
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ वसुन्धरे मम सपरिवारकस्य स्थानं रक्ष रक्ष हूँ फट् स्वाहा।।
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ महालक्ष्मि मम सपरिवारकस्य पादौ रक्ष रक्ष हूँ फट् स्वाहा।।
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ चण्डिके मम सपरिवारकस्य जंघे रक्ष रक्ष हूँ फट् स्वाहा।।
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ चामुण्डे मम सपरिवारकस्य गुह्यं रक्ष रक्ष हूँ फट् स्वाहा।।
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ इन्द्राणि मम सपरिवारकस्य नाभिं रक्ष रक्ष हूँ फट् स्वाहा।।
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ नारसिंहि मम सपरिवारकस्य बाहूं रक्ष रक्ष हूँ फट् स्वाहा।।
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ वाराहि मम सपरिवारकस्य हृदयं रक्ष रक्ष हूँ फट् स्वाहा।।
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ वैष्णवि मम सपरिवारकस्य कण्ठं रक्ष रक्ष हूँ फट् स्वाहा।।
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ कौमारि मम सपरिवारकस्य वक्त्रं रक्ष रक्ष हूँ फट् स्वाहा।।
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ माहेश्वरि मम सपरिवारकस्य नेत्रे रक्ष रक्ष हूँ फट् स्वाहा।।
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ ब्रह्माणि मम सपरिवारकस्य शिरो रक्ष रक्ष हूँ फट् स्वाहा।।
हूँ ह्रीं क्लीं ॐ विपरीतप्रत्यंगिरे मम सपरिवारकस्य छिद्रं सर्वगात्राणि रक्ष रक्ष हूँ फट् स्वाहा।।
सन्तापिनी संहारिणी रौद्री च भ्रामिणी तथा।
जृम्भिणी द्राविणी चैव क्षोभिणी मोहिनी ततः।।24।।
स्तम्भिनी चांऽशरुपास्ताः शत्रुपक्षे नियोजिताः।
प्रेरिता: साधकेन्द्रेण दुष्टशत्रुप्रमर्दिकाः।।25।।
ॐ सन्तापिनि स्फ्रें स्फ्रें मम सपरिवारकस्य शत्रुन् सन्तापय सन्तापय हूँ फट् स्वाहा।।
ॐ संहारिणि स्फ्रें स्फ्रें मम सपरिवारकस्य शत्रुन् संहारय संहारय हूँ फट् स्वाहा।।
ॐ रौद्रि स्फ्रें स्फ्रें मम सपरिवारकस्य शत्रुन् रौद्रय रौद्रय हूँ फट् स्वाहा।।
ॐ भ्रामिणि स्फ्रें स्फ्रें मम सपरिवारकस्य शत्रुन् भ्रामय भ्रामय हूँ फट् स्वाहा।।
ॐ जृम्भिणि स्फ्रें स्फ्रें मम सपरिवारकस्य शत्रुन् जृम्भय जृम्भय हूँ फट् स्वाहा।।
ॐ द्राविणि स्फ्रें स्फ्रें मम सपरिवारकस्य शत्रुन् द्रावय द्रावय हूँ फट् स्वाहा।।
ॐ क्षोभिणि स्फ्रें स्फ्रें मम सपरिवारकस्य शत्रुन् क्षोभय क्षोभय हूँ फट् स्वाहा।।
ॐ मोहिनि स्फें स्फ्रें मम सपरिवारकस्य शत्रुन् मोहय मोहय हूँ फट् स्वाहा।।
ॐ स्तम्भिनि स्फ्रें स्फ्रें मम सपरिवारकस्य शत्रुन् स्तम्भय स्तम्भय हूँ फट् स्वाहा।।
मातृका:
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ अँ आँ इँ ईँ उँ ऊँ ऋँ ऋृँ लृँ ळृँ एँ ऐँ ओँ औं अँ अः कँ खँ गँ घँ ङँ चँ छँ जँ झँ ञँ टँ ठँ डँ ढँ णँ तँ थँ दँ धँ नँ पँ फँ बँ भँ मँ यँ रँ लँ वँ शँ षँ सँ हँ लँ क्षँ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ विपरीतपरब्रह्म महाप्रत्यंगिरे ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ अँ आँ इँ ईँ उँ ऊँ ऋँ ऋृँ लृँ ळृँ एँ ऐँ ओँ औं अँ अः कँ खँ गँ घँ ङँ चँ छँ जँ झँ ञँ टँ ठँ डँ ढँ णँ तँ थँ दँ धँ नँ पँ फँ बँ भँ मँ यँ रँ लँ वँ शँ षँ सँ हँ लँ क्षँ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ । ॐ विपरीतपरब्रह्ममहाप्रत्यंगिरे मम सपरिवारकस्य सर्वेभ्यः सर्वतः सर्वदा रक्षां कुरु कुरु मरण भयापन पापनय त्रिजगतां बलरुपवित्तायुर्मे सपरिवारकस्य देहि देहि दापय दापय साधकत्वं प्रभुत्वं च सततं देहि देहि विश्वरुपे धनं पुत्रान् देहि देहि मां सपरिवारकस्य मां पश्येत्तु देहिनः सर्वे हिंसकाः हि प्रलयं यान्तु मम सपरिवारकस्य शत्रूणां बलबुद्धिहानिं कुरु कुरु तान् स-सहायान् स्वेष्टदेवतान् संहारय संहारय तेषां मन्त्र यन्त्र तन्त्र लोकान् प्राणान् हर हर हारय हारय स्वाचारमपनयापनय ब्रह्मास्त्रादीनि नाशय नाशय हूँ हूँ स्फें स्फ्रें ठः ठः फट फट् ॐ स्वाहा।।
फलश्रुति:
वृणोति य इमां विद्यां श्रृणोति च सदाऽपि ताम्।
यावत्कृत्यादि शत्रूणां तत्क्षणादेव नश्यति।।1।।
मारणं शत्रुवर्गाणां रक्षणाय चात्मपरम्।
आयुर्वृद्धिर्यशोवृद्धिस्तेजोवृद्धिस्तथैव च।।2।।
कुबेर इव वित्ताढ्यः सर्वसौख्यमवाप्नुयात्।
वाय्वादीनामुपशमं विषमज्वरनाशनम्।।3।।
परवित्तहरा सा वै परप्राणहरा तथा।
परक्षोभादिककरा तथा सम्पत्करा शुभा।।4।।
स्मृतिमात्रेण देवेशि ! शत्रुवर्गा लयं गताः।
इदं सत्यमिदं सत्यं दुर्लभा देवतैरपि।।5।।
शठाय पर शिष्याय न प्रकाश्या कदाचन।
पुत्राय भक्ति युक्ताय स्वशिष्याय तपस्विने।
प्रदातव्या महाविद्या चात्मवर्गप्रदा यतः।।6।।
विना ध्यानैर्विना जापैर्विना पूजा विधानतः।
विना षोढा विना ज्ञानैर्मोक्षसिद्धिः प्रजायते।।7।।
परनारीहरा विद्या पररुपहरा तथा।
वायुचन्द्रस्तम्भकरा मैथुनानन्दसंयुता।।8।।
त्रिसन्ध्यमेकसन्ध्यं वा यः पठेत् भक्तितः सदा।
सत्यं वदामि देवेशि मम कोटिसमो भवेत्।।9।।
क्रोधादेव गणाः सर्वे लयं यास्यन्ति निश्चितम्।
किं पुनर्मानवा देवि! भूतप्रेतादयो मृताः।।10।।
विपरीता समा विद्या न भूता न भविष्यति।
पठनान्ते परब्रह्म विद्यां सभास्करा तथा।
मातृकां पुटितं देवि! दशधा प्रजपेत् सुधीः।।11।।
वेदादिपुटिका देवि! मातृकानन्तरुपिणि।
तथा हि पुटितां विद्यां प्रजपेत् साधकोत्तमः।।12।।
मनोजित्वा जपेल्लोकं भोग रोगं तथा यजेत्।
दीनतां हीनतां जित्वा, कामिनीं निर्वाणपद्धतिम्।।13।।
।। श्रीमहाविपरीत प्रत्यंगिरा स्तोत्रम् नम:।।
हवन सम्बन्धित विशेष ज्ञातव्य बातें:
श्रीमहाविपरीत प्रत्यंगिरा विद्या के अनुष्ठान में मुख्य रूप से हवि के रूप में "गाय का घी, धान का लावा, पीली सरसों, काली मिर्च व सेंधा नमक" का प्रयोग किया जाता है। इसके साथ साथ खीर (बिना चीनी का, केवल गाय के दूध में पकाया हुआ चावल) व काले तिल का भी हवन किया जाता है।
धान का लावा यदि बाजार में न मिले तो घर पर ही कड़ाही में थोड़ा सा सफेद बालू डालकर उसे चूल्हे या गैस पर चढ़ाकर धान को लावा बना लें।
खीर में पंचमेवा, शहद व घी मिलाकर हवन के लिए प्रयोग करें। खीर के लिए स्वच्छ चावल का प्रयोग करें।
काले तिल में शक्कर/चीनी (1 किलो काले तिल में लगभग एक पाव शक्कर ), शहद, घी, सफेद/लाल चन्दन का बुरादा मिलाकर हवन के लिए प्रयोग करें । बाजार में विकने वाले काले तिल में बहुत मिलावट रहती है, अतः उपयोग करने से पहले काले तिल को अच्छी तरह से धोकर सुखा लें।
हवन करने के लिए प्रयुक्त व्यक्तियों की संख्या के अनुसार हवन सामग्री को निर्धारित करें।
हवन के लिए आम और बेर की सुखी लकड़ी का प्रयोग करें । सूखी लकड़ी न मिले तो कुछ दिन पहले से ही हरी लकड़ी को काटकर धूप में सूखा लें। सड़ी हुई और घुनी (किड़ों द्वारा छेदित) हुई लकड़ी को हवन में प्रयोग न करें।
हवन करने से पहले वेदी या हवन-कुण्ड का पंचभू संस्कार अवश्य करें और हवन के सभी नियमों का पालन करें।
कुछ विद्वान लोग इस अनुष्ठान के हवन के साथ साथ महाविद्या से हवन, महामृत्युंजय मंत्र से हवन, गायत्री मंत्र आदि से हवन भी करते हैं; अतः श्रीमहाविपरीत प्रत्यंगिरा अनुष्ठान के हवन के बाद में अन्य मन्त्रों व विद्याओं से हवन करें।
अन्तिम बात:
शास्त्रों में प्रायः सभी महाविद्याओं और अन्य देवताओं के मन्त्र-स्तोत्रादि मिलते हैं, किन्तु यह स्तोत्र उन सबकी चरम सीमा है। इसकी 'पीठिका' और 'फलश्रुति' में कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं है; केवल करने की सामर्थ्य व आस्था चाहिए। किसी भी प्रकार का अभिचार, रोग, ग्रह पीड़ा, देव पीड़ा, दुर्भाग्य, शत्रु या राज-भय आदि इस विद्या के अनुष्ठान से समाप्त हो जाता है और इसके साधक को ‘कृत्या, डाकिनी, भूत-प्रेत, दुष्ट देवी-देवता आदि' किसी भी प्रकार से बाल-बांका नहीं कर सकते।
यदि आप विशेषत: दैवीय पीड़ा से परेशान हैं, चाहे व दैवीय पीड़ा किसी भी तरह की, कितनी ही पुरानी क्यो न हो, महाविद्या अनुष्ठान, महामृत्युंजय जप, बगलामुखी अनुष्ठान, अपराजिता अनुष्ठान से शायद आपकी दैवीय पीड़ा समाप्त न हुई हो, लेकिन श्रीमहाविपरीत प्रत्यंगिरा विद्या का प्रयोग आपको शांति अवश्य प्रदान करेगी। अतः आप दर-दर भटकना छोड़िए और श्रीमहाविपरीत प्रत्यंगिरा माता की शरण में आकर अपनी उन्नति का मार्ग प्रशस्त कीजिए।
श्रीमहाविपरीत प्रत्यंगिरा विद्या पूर्ण रूप से हानि रहित है। इसे कोई भी आस्थावान व्यक्ति श्रीमहाविपरीत प्रत्यंगिरा माता की शरण में रहकर प्रयोग कर सकता है।
हमने परोपकार के उद्देश्य से भगवान शिव जी द्वारा कही गयी श्रीमहाविपरीत प्रत्यंगिरा मन्त्र और स्तोत्र को हर संभव प्रयास तक त्रुटि रहित, शुद्ध, सही और प्रयोग की अचूक विधि को जनकल्याण के लिए प्रस्तुत किया है, अन्य विद्वानों के अपने अलग मत व अनुभव हो सकते हैं।
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