यह कहानी महाभारत से ली गयी है जिसमें मनुष्य का एक अद्भुत गुण "शील" पर विस्तृत जानकारी दी गयी है ।
युधिष्ठिर ने पूछा -- नरश्रेष्ठ ! संसार में मनुष्य धर्म के आधार शील की ही अधिक प्रशंसा करते हैं । अतः यदि आप मुझे सुनने का अधिकारी समझे तो यही बताने की कृपा करें कि उस शील का क्या लक्षण है, और वह कैसे प्राप्त होता है?
भीष्म जी ने कहा -- राजन ! इंद्रप्रस्थ में जब तुम्हारा राजसूय यज्ञ हुआ था, उस समय तुम्हारी अनुपम समृद्धि और सभा भवन को देखकर दुर्योधन को बड़ा दुख हुआ। वहां से लौटने पर उसने अपने पिता से सारी बातें कह सुनाई।
तब धृतराष्ट्र ने कहा -- बेटा !
यदि तुम युधिष्ठिर की ही भांति या उससे भी बढ़कर राज्य लक्ष्मी पाना चाहते हो तो शीलवान बनो । शील से तीनों लोक जीते जा सकते हैं। शीलवानों के लिए इस संसार में कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं है।
राजा मांधाता ने एक ही रात में, जन्मेजय ने तीन रात में, और नाभाग ने सात रात में ही इस पृथ्वी का राज्य प्राप्त किया था। यह सभी राजा शीलवान तथा दयालु थे। अतः उनके गुणों द्वारा खरीदी हुई यह पृथ्वी स्वयं ही उनके पास आ गई थी।
दुर्योधन ने पूछा -- भारत ! जिसके द्वारा उन राजाओं ने शीघ्र ही भूमंडल का राज्य पा लिया था, वह शील कैसे प्राप्त होता है ?
धृतराष्ट्र ने कहा -- इसके विषय में एक पुराना इतिहास है, इसे नारद जी ने शील के ही प्रसंग में सुनाया था।
प्राचीन समय की बात है, दैत्तराज प्रह्लाद ने अपने शील के सहारे इंद्र का राज्य ले लिया और तीनों लोकों को अपने वश में कर लिया । उस समय इंद्र ने बृहस्पति के पास जाकर उनसे ऐश्वर्य प्राप्ति का उपाय पूछा था, तो बृहस्पति ने उन्हें इस विषय का विशेष ज्ञान प्राप्त करने के लिए श्री शुक्राचार्य के पास जाने की आज्ञा दी। तब उन्होंने प्रसन्नता पूर्वक शुक्राचार्य के पास जाकर फिर वही प्रश्न दोहराया।
शुक्राचार्य बोले -- इसका विशेष ज्ञान महात्मा प्रह्लाद को है। यह सुनकर इन्द्र बहुत खुश हुए और ब्राह्मण का रूप धारण कर प्रह्लाद के पास गए।
वहां पहुंच कर उन्होंने कहा -- राजन मैं श्रेय प्राप्ति का उपाय जानना चाहता हूं, आप बताने की कृपा करें !
प्रह्लाद ने कहा -- विप्रवर! मैं तीनों लोकों के राज्य का प्रबंध करने में व्यस्त रहता हूं, इसलिए मेरे पास आप को उपदेश देने का समय नहीं है।
ब्राम्हण ने कहा -- महाराज! जब समय मिले, तभी मैं आपसे उत्तम आचरण का उपदेश लेना चाहता हूं। ब्राम्हण की सच्ची निष्ठा देखकर प्रहलाद बड़े प्रसन्न हुए, और शुभ समय आने पर उन्होंने उसे ज्ञान का तत्व समझाया।
ब्राह्मण ने भी अपनी उत्तम गुरुभक्ति का परिचय दिया ! उसने प्रह्लाद की इच्छा अनुसार न्यायोचित रीति से भलीभांति उनकी सेवा की। फिर, समय पाकर उनसे अनेकों बार यह प्रश्न किया कि त्रिभुवन का उत्तम राज्य आपको कैसे मिला ? इसका कारण मुझे बताइए ?
प्रह्लाद ने कहा -- विप्रवर! मैं राजा हूं। इस अभिमान में आकर कभी ब्राह्मणों की निंदा नहीं करता, बल्कि जब वे मुझे शुक्रनीति का उपदेश करते हैं, उस समय संयम पूर्वक उनकी बातें सुनता हूं, और उनकी आज्ञा को सिर पर धारण करता हूं। यथाशक्ति शुक्राचार्य के बताए हुए नीति मार्ग पर चलता हूं। ब्राह्मणों की सेवा करता हूं। किसी में अधिक दोष नहीं देखता । धर्म में मन लगाता हूं। क्रोध को जीतकर, मन को काबू में रख कर, इंद्रियों को सदा वश में किए रहता हूं। मेरे इस बर्ताव को जानकर ही विद्वान ब्राह्मण मुझे अच्छे-अच्छे उपदेश दिया करते हैं,और मैं भी उनके वचनामृतों का पान करता रहता हूं। इसलिए जैसे चंद्रमा नक्षत्रों पर शासन करते हैं, उसी प्रकार मैं भी अपने जाति वालों पर राज्य करता हूं। शुक्राचार्य जी का नीति शास्त्र ही इस भूमंडल का अमृत है। यही उत्तम नेत्र है, और यही श्रेय प्राप्ति का सर्वोत्तम मार्ग है ।
प्रह्लाद से इस प्रकार उपदेश पाकर भी वह ब्राह्मण उनकी सेवा में लगा रहा और तब एक दिन प्रह्लाद ने कहा कि विप्रवर ! तुमने गुरु के समान मेरी सेवा की है, तुम्हारे इस बर्ताव से प्रसन्न होकर मैं तुम्हें वर देना चाहता हूं, तुम्हारी जो इच्छा हो मांग लो , मैं उसे अवश्य पूर्ण करूंगा ।
ब्राम्हण ने कहा -- महाराज! यदि आप प्रसन्न हैं और मेरा प्रिय करना चाहते हैं, तो मुझे आपका यह शील ग्रहण करने की इच्छा है, यही वर दीजिए।
ऐसा वरदान मांगने पर प्रह्लाद को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने सोचा यह कोई साधारण मनुष्य नहीं लगता, फिर भी "तथास्तु" कहकर उन्होंने वर दे दिया, और वर पाकर ब्राम्हण वेशधारी इंद्र तो चले गए, परंतु प्रह्लाद के मन में बड़ी चिंता होने लगी। वे सोचने लगे क्या करना चाहिए मगर किसी निश्चय पर नहीं पहुंच सके। इतने ही में उनके शरीर से एक परम कांतिमान छायामय 'तेज' मूर्तिमान होकर प्रकट हुआ। उसे देखकर प्रह्लाद ने पूछा - आप कौन हैं ? उत्तर मिला- मैं शील हूं । तुमने मुझे त्याग दिया है, इसलिए मैं जा रहा हूं और अब उसी ब्राह्मण के शरीर में निवास करूंगा, जो तुम्हारा शिष्य बनकर एकाग्रचित्त से सेवा परायण हो यहां रहा करता था। यह कह कर वह तेज वहां से अदृश्य हो गया और इंद्र के शरीर में प्रवेश कर गया।
उसके अदृश्य होते ही उसी तरह का दूसरा तेज उनके शरीर से प्रकट हुआ। प्रसाद ने उनसे भी पूछा - आप कौन हैं? उसने कहा - प्रह्लाद! मैं "धर्म" हूॅं और मैं भी उस श्रेष्ठ ब्राह्मण के पास जा रहा हूं, क्योंकि जहां शील होता है, वही मैं भी रहता हूं। यों कहकर ज्यों ही वह विदा हुआ त्यों ही तीसरा तेजोमय विग्रह प्रकट हुआ।
उससे भी वही प्रश्न हुआ - आप कौन हैं ? उस तेजस्वी ने उत्तर दिया - असुरेंद्र! मैं "सत्य" हूं और धर्म के पीछे जा रहा हूं। सत्य के जाने पर एक और महाबली पुरुष प्रकट हुआ। उसने पूछने पर कहा कि प्रह्लाद ! मुझे "सदाचार" समझो ! जहां सत्य हो वही मैं भी रहता हूं।
उसके चले जाने पर उनके शरीर से बड़े जोर की गर्जना करता हुआ एक तेजस्वी पुरुष प्रकट हुआ। परिचय पूछने पर वह बोला - मैं "बल" हूं, और जहां सदाचार गया है, वहीं मैं भी जा रहा हूं। यह कहकर वह भी चला गया। तत्पश्चात प्रह्लाद के शरीर से एक प्रभामयी देवी प्रकट हुई। पूछने पर उसने बताया - मैं "लक्ष्मी" हूं। तुमने मुझे त्याग दिया है इसलिए यहां से चली जा रही हूं क्योंकि जहां बल रहता है वहीं मैं भी रहती हूं।
प्रह्लाद ने पुनः प्रश्न किया - देवी ! तुम कहां जा रही हो और वह श्रेष्ठ ब्राह्मण कौन था ? मैं इसका रहस्य जानना चाहता हूं! लक्ष्मी बोली -- तुमने जिसे उपदेश दिया है, वह ब्रह्मचारी ब्राह्मण के रूप में साक्षात इंद्र थे। तीनों लोकों में जो तुम्हारा ऐश्वर्य फैला हुआ था, वह उन्होंने हर लिया।
धर्मज्ञ ! तुमने शील के द्वारा ही तीनों लोकों पर विजय पाई थी ।यह जानकार इंद्र ने तुम्हारे शील का अपहरण कर लिया है।
धर्म, सत्य, सदाचार और मैं लक्ष्मी; शील के ही आधार पर रहते हैं। शील ही इन सबकी जड़ है । यह कहकर लक्ष्मी तथा शील आदि गुण इन्द्र के पास चले गए।
इस कथा को सुनकर दुर्योधन ने अपने पिता से पूछा - कुरुनंदन! मैं शील का तत्व जानना चाहता हूं , मुझे समझाइए और जिस तरह उसकी प्राप्ति हो सके वह उपाय भी बताइए।
धृतराष्ट्र ने कहा - बेटा! शील का स्वरूप और उसे पाने का उपाय, ये दोनों बातें महात्मा प्रह्लाद ने पहले ही बताई थी।
मैं संक्षिप्त में शील की प्राप्ति का उपाय मात्र बता रहा हूं-- ध्यान देकर सुनो! मन, वाणी और शरीर से किसी भी प्राणी के साथ द्रोह न करो, सब पर दया करो, अपनी शक्ति के अनुसार दान दो; यही वह उत्तम शील है जिसकी सब लोग प्रशंसा करते हैं। अपने जिस किसी कार्य या पुरुषार्थ से दूसरों का हित न होता हो तथा जिसे करने में संकोच का सामना करना पड़े, वह सब कार्य नहीं करना चाहिए । जिस काम को जिस तरह करने से मानव समाज में प्रशंसा हो, वह काम उसी तरह करना चाहिए। थोड़े में ही यही शील का स्वरूप है।
बेटा! इस तत्व को ठीक तरह से समझ लो और यदि युधिष्ठिर से भी अच्छी संपत्ति प्राप्त करना चाहते हो तो शीलवान बनो।
भीष्म जी कहते हैं - कुंतीनंदन! राजा धृतराष्ट्र ने अपने पुत्र को यह उत्तम उपदेश दिया था। तुम भी इसका आचरण करो। इससे तुम्हें भी महान ऐश्वर्य प्राप्त होगा।
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