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छुआछूत की समस्या, अस्पृश्यता क्या है और इससे कैसे बचें

छुआछूत या अस्पृश्यता हमारे देश में एक बहुत ही बड़ी सामाजिक समस्या है और ऐसा नहीं है कि, आज जिस तरह से छुआछूत की समस्या को व्यक्ति विशेष में माना जाता

 छुआछूत की समस्या

छुआछूत या अस्पृश्यता हमारे देश में एक बहुत ही बड़ी सामाजिक समस्या है और ऐसा नहीं है कि, आज जिस तरह से छुआछूत की समस्या को व्यक्ति विशेष में माना जाता है, वह प्राचीन समय में भी था;  नहीं! ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। यह बदलते दौर के साथ लोगों की हीन मानसिकता का परिणाम है। छुआछूत शब्द का प्रयोग हिंदू धर्म को लक्ष्य बनाकर ही किया जाता है; लेकिन ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि, हिंदू धर्म किसी से अनावश्यक घृणा करने के लिए प्रेरित करता है या छुआछूत को बढ़ावा देता है। अगर छुआछूत को हिन्दू धर्म से जोड़ा जाए तो, हिन्दू धर्म केवल किसी परिस्थिति विशेष व नीच घृणित व्यक्ति विशेष से कुछ बर्ताव के लिए कहता है। हिन्दू धर्म किसी जाति विशेष से अनावश्यक छुआछूत या किसी को अनावश्यक अपमानित या तिरस्कृत करने के लिए प्रेरित नहीं करता है।

छुआछूत क्या है ? 

यह एक सामाजिक बुराई है। छुआछूत की समस्या, अन्य धर्मों को मानने वालों के साथ-साथ, हिन्दुओं में भी अधिक पाई जाती है, लेकिन मैं हिंदू धर्म का विरोध नहीं कर रहा हूॅं, क्योंकि हिंदू धर्म (सनातन धर्म) किसी से भी अनावश्यक घृणा करने के लिए प्रेरित नहीं करता। जिन हिन्दुओं को अपने हिंदू धर्म की पूर्ण जानकारी नहीं है, वही लोग छुआछूत अधिक मानते हैं, वरना हिन्दू धर्म के अनुसार, किसी एक विशेष परिस्थिति व समय विशेष में ही कुछ बर्ताव किया जाता है। 

लेकिन आज छुआछूत शब्द से जो अभिप्राय होता है, उसका अर्थ किसी जाति विशेष से घृणा से माना जाता है। छुआछूत का मतलब है -  किसका छूआ खाएं, किसका छूआ ना खाएं ? किसका  अन्न खाएं, किसका अन्न ना खाएं ? किसका बनाया खाएं, किसका बनाया ना खाएं ?  किसका छूआ हुआ वस्तु प्रयोग करें, जिसका छूआ वस्तु प्रयोग ना करें ? इस प्रकार की भावना जिसके भीतर होती है, वह व्यक्ति छुआछूत को मानने वाला होता है। 

छुआछूत को मानना कोई बुरी बात भी नहीं है, और यह अच्छी भी है और लेकिन यदि अनावश्यक रूप से छुआछूत माना जाए तो, छुआछूत बुरी भी है। 

छुआछूत मानने का कारण क्या है ?

छुआछूत मानने का कारण क्या है? छुआछूत कौन लोग मानते हैं ? किससे छुआछूत मानते हैं ? इसके पीछे क्या मानसिकता होती है ? पहले यह भी जाना चाहिए ! 

अधिकतर छुआछूत मानने वाले लोग कोई बहुत बुरे विचार के नहीं होते हैं। वे केवल थोड़ा सा मानसिक भ्रम के शिकार रहते हैं और वे इसके बारे में गहराई से नहीं सोचते हैं। यह लोग भ्रष्ट होने के डर से ही अधिकतर ऐसा करते हैं।  भ्रष्ट होने का क्या डर रहता है ? बुद्धि भ्रष्ट होने का डर रहता है। यह सोचते हैं कि नीच का अन्न खाएंगे, तो हम भी नीच बुद्धि के हो जाएंगे। यानी हममें भी तामसी भाव आ जाएंगे। कुछ सामाजिक डर भी रहता है, कि लोग हमें ताना मारेंगे या जाति से बहिष्कृत कर देंगे। लेकिन हमें या उन्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। 

हमें इस समस्या पर अच्छा से विचार करना चाहिए। हमें किसी जाति विशेष से घृणा नहीं करनी चाहिए। आज परिस्थिति बदल चुकी है। पहले वर्ण व्यवस्था चलती थी, तब की बात अलग थी। अब वर्ण व्यवस्था ध्वस्त हो चुकी है। सभी जातियों के कार्य और खान पान में कोई ज्यादा अंतर नहीं रह गया है। अब लगभग सभी लोग सभी जातियों के कार्य करते हैं। सभी जातियों का खान-पान और रहन-सहन लगभग एक सा (समान) हो गया है। फिर बर्ताव किस चीज का करें। 

बर्ताव (घृणित शब्द- छूत) मानने की कुछ परिस्थितियां होती हैं, जो सामाजिक व धार्मिक नियमों के अंतर्गत आती हैं। हिन्दू धर्म के अनुसार, सफाई (स्वच्छता) और पवित्रता में अंतर होता है। और एक सच्चे मानव धर्म के अनुसार भी, सफाई और पवित्रता में अंतर होता है। इन पर किसी का बस नहीं है, और उनको मानना ही पड़ेगा।  जैसे-

किसी के घर पैदाइश (सन्तान उत्पन्न) हुई है, या किसी के घर मरण (मृत्यु) हो गया है, तो धर्म के अनुसार उसके घर को अपवित्र समझकर कुछ दिन बर्ताव अवश्य करना पड़ता है। 

इसी प्रकार, कुछ लोगों का जातिगत पेशा या कर्म ही अशुद्धि वाला होता है। यदि वह कार्य उनके घर अभी हो रहा है, तो तपस्वी लोग व श्रेष्ठ कर्म करने वाले लोग उसके घर का खाना या भोजन करना उचित नहीं समझते है। लेकिन ऐसा नहीं है कि वे लोग, धर्म के अनुसार, उसे अपमानित या तिरस्कृत करते हैं। जिन्हें पसंद है, वह खा सकते हैं और खाते भी है; उन्हें कौन मना करने जाता है। एक उदाहरण और है,

वे लोग, जो शौचालय का इस्तेमाल नहीं करते, या करते भी हैं तो शौचालय में, जब लोग साफ बर्तन में साफ पानी लेकर शौच करने जाते हैं, तो शौच कर्म के बाद, जो पानी बर्तन में बचता है, तो क्या लोग उसे पी सकते हैं ? नहीं ना ! क्योंकि शौच कर्म के बाद बचा हुआ पानी भले ही साफ हो, लेकिन उसे पवित्र समझकर पीया नहीं जा सकता। धर्म के अनुसार, वह पानी अपवित्र हो गया, इसलिए लोग शौच से बचा पानी नहीं पीते। अगर किसी का पीने का विचार है, तो वह पीये, उन्हें कौन मना करने जाता है।

हिन्दू धर्म के अनुसार, कुछ कर्म ऐसे होते हैं, जिनमें पवित्रता का ध्यान रखा जाता है। इसलिए पवित्रता वाले कर्म में अपवित्र लोगों और अपवित्र वस्तुओं से बर्ताव किया जाता है, चाहे कोई भी हो।

अगर हमें बर्ताव या छुआछूत या किसी से अस्पृश्यता मानना है, तो किसी जाति विशेष से छुआछूत ना मानकर परिस्थिति पर ध्यान देना अधिक अच्छा रहेगा और यही हमारा सनातन धर्म भी कहता है। 

किससे छुआछूत (अस्पृश्यता) या बर्ताव नहीं मानना चाहिये ?

. मनुष्य को नियम पूर्वक व धर्म पूर्वक अपना जीवन बिताना चाहिए। 

अधर्मी नहीं बनना चाहिए, चाहे मनुष्य किसी भी धर्म या संप्रदाय या जाति का क्यों ना हो। 

वह मानव है और उसे मानव की तरह ही जीवन बिताना चाहिए, ना कि पशु की तरह या दानव की तरह। 

मनुष्य को सफाई से रहना चाहिए। सफाई के नियमों का पालन करना चाहिए। 

मांस - मछली व मदिरा का भक्षण नहीं करना चाहिए। 

किसी का अनावश्यक दिल नहीं दुखाना चाहिए। 

अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। 

चोरी, छल-कपट, झूठ, निंदा, व्यभिचार आदि से दूर रहना चाहिए।

गुरुजनों, माता-पिता व आदरणीय जनों का आदर करना चाहिए। 

जीवों पर दया करनी चाहिए।

समाज व देश की भलाई के लिए अपना अधिक से अधिक योगदान देना चाहिए। 

अपनी संस्कृति व सभ्यता की रक्षा करनी चाहिए।

और भी बहुत सी अच्छी बातें हैं; उन सब का ध्यान देना चाहिए और पालन करना चाहिए। अगर मनुष्य इस प्रकार से अपना जीवन बिताता है और मानव धर्म का पालन करता है तो कोई उससे घृणा क्यों करेगा ! कोई किसी से छुआछूत क्यों मानेगा ! ऐसे अच्छे प्रकृति व विचार के व्यक्तियों से जो छुआछूत मानेगा, उसे बुद्धिहीन समझा जाएगा और उस सदाचारी व्यक्ति से छुआछूत मानने वाले से बड़ा बुद्धिहीन कौन हो सकता है। 

इसलिए यदि मनुष्य समाज से छुआछूत को समाप्त करना चाहता है, तो उसको (मनुष्यों को) पहले अपनी पशु और दानव वृत्ति को त्यागनी होगी और एक सच्चा मानव बनना होगा और मानव धर्म का पालन करना होगा। तब एक स्वस्थ समाज का निर्माण होगा। केवल भ्रम में पड़े रहने से नहीं।

निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु
लक्ष्मी: समाविशतु गच्छति वा यथेष्टम् ।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा
न्याय्यात्पथ: प्रविचलन्ति पदं न धीरा: ।। 

अर्थ:- नीति जानने वाले लोग निंदा या प्रशंसा करें, धन (लक्ष्मी) आये या अपनी इच्छानुसार चली जाए, मृत्यु अभी हो या अनंत काल के बाद; लेकिन धैर्यवान लोग न्यायोचित मार्ग से पग भर भी विचलित नहीं होते हैं।

अत: प्रत्येक मनुष्य को चाहिए कि वह धर्म के अनुसार न्यायोचित मार्ग का अनुसरण करें। अपने स्वार्थ के लिए न्यायोचित मार्ग का परित्याग ना करें।  

!! जय श्री कृष्णा !!

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