सनातन धर्म के अनुसार बिप्र और द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) तथा शूद्र कौन है?
हिन्दू धर्म के अनुसार, समाज को सुचारु रूप से कार्यशील रखने के लिए वर्ण व्यवस्था का निर्माण ईश्वर द्वारा सृष्टी के आरम्भ के समय ही किया गया।
हिन्दू धर्म के अनुसार, जाति का निर्धारण जन्म के द्वारा भी होता है और कर्म द्वारा भी; हिन्दू धर्म यह भी कहता है कि कोई मनुष्य कर्म करके श्रेष्ठ जाति की पदवी पा सकता है या अपनी जाति की पदवी खो कर अधम मनुष्य का दर्जा प्राप्त कर सकता है।
'चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः' (गीताः४।१३)
भगवान श्रीकृष्ण का ये कथन है कि गुण और कर्म के आधार पर ही मैंने चारों वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की सृष्टि की है। और संभवतः इसी कारण क्षत्रिय कुलोद्भव विश्वामित्र अपने कर्म से ब्राह्मण (ब्रह्मर्षि--ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति) हुए और ब्राह्मण कुल में अवतरित होकर भी भगवान परशुराम कर्म से क्षत्रिय।
यास्क मुनि के अनुसार-
जन्मना जायते शूद्रः - जन्म से सभी शूद्र हैं।
संस्कारात् भवेत द्विजः - संस्कार से द्विज बनते हैं।
ब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः; सबसे श्रेष्ठ स्थिति, जो ब्रह्म को जान गया, वही 'ब्राह्मण' है।
वेद पाठात् भवेत विप्रः - वेदपाठी विप्र कहलाते हैं। ये सब एक स्थिति विशेष के नाम हैं।
ब्राह्मण जाति में जन्म लेने से कोई ब्राह्मण तब तक नहीं माना जाएगा, जब तक की उसका अन्य संस्कार और उपनयन संस्कार न हुआ हो, और वह उपनयन संस्कार के होने पर भी ब्राह्मणोचित कर्म न करता हो। यदि वह उपनयन संस्कार से युक्त है और ब्राह्मणोचित कर्म (प्रतिदिन तीनों समय संध्या वंदन, सदाचारी, शाकाहारी, भगवत प्रेमी, वेद पठन-पाठन, तपस्या, ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति का प्रयास आदि कर्म) कर रहा है, तभी वह ब्राह्मण कहलाता है, वरना हिन्दू धर्म उसे ब्राह्मण नहीं मानता। जिस दिन ब्राह्मण जाति में जन्मा व्यक्ति ब्राह्मणोचित कर्म को छोड़ देगा, उस दिन से वह धर्म के अनुसार अधम मनुष्य या अपने कर्म के अनुसार जाति का दर्जा प्राप्त कर लेता है।
जैसे- चिकित्सक(Doctor) को ईश्वर का दूसरा रूप कहा जाता है। चिकित्सक की पढ़ाई कर लेने से ही व्यक्ति डाॅक्टर की संज्ञा प्राप्त कर लेता है, लेकिन आप हर चिकित्सक को ईश्वर के समान नहीं मान सकते।
कोई चिकित्सक तब ईश्वर का रूप कहा जाएगा, जब वह बिना भेदभाव किए और किसी को बिना नुकसान पहुंचाए, अपने चिकित्सकीय धर्म का ठीक से पालन करे।
आप उस चिकित्सक को ईश्वर के समान नहीं मान सकते, जो पैसों की लालच में डूबे रहते है, अपने चिकित्सकीय पद का दुरुपयोग करते हैं और अपने चिकित्सकीय पद की आड़ में घिनौने घिनौने कार्य करते हैं।
इसी प्रकार से क्षत्रिय जाति या कुल में जन्म लेने वाला, तब तक क्षत्रिय नहीं कहलाएगा, जब तक कि उसका अन्य संस्कारों के साथ उपनयन संस्कार न हुआ हो, और उपनयन संस्कार होने के बाद भी वह क्षत्रियोचित कर्म न करता हो।
इसी प्रकार से वैश्य जाति या कुल में जन्म लेने वाला, तब तक वैश्य नहीं कहलाएगा, जब तक कि उसका अन्य संस्कारों के साथ उपनयन संस्कार न हुआ हो, और उपनयन संस्कार होने के बाद भी वह वैश्योचित कर्म न करता हो।
केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य के जाति में जन्म ले लेने से वह उस जाति का नहीं हो जाएगा, जब तक की वह उपनयन संस्कार के साथ अपने कर्म को न करता हो।
कुछ अति उत्साही ब्राह्मण लोगों द्वारा भी आजकल इस चौपाई (पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना) का सहारा लेकर स्वयं का महिमा मंडन किया जाता है, जैसे कि अपराध करने पर भी ब्राह्मण महान है , जबकि वे इसका सही अर्थ नहीं जानते तथा वे खुद अपना शास्त्रोक्त कर्म छोड़कर ब्राह्मणत्व से गिर चुके हैं, क्योंकि वे लोग उपनयन संस्कार से हीन होकर और कुछ लोग उपनयन संस्कार के साथ ही मांस मदिरा का सेवन कर रहे हैं और विलासी हो गये हैं और सनातन धर्म जिन कर्मों को करने से मना कर रहा है, वही कर्म कर रहे हैं। यही अनावश्यक गर्व की स्थिति भ्रष्ट क्षत्रियों व वैश्यों में भी देखने को मिलती है।
खर, दूषण, कुम्भकर्ण व स्वयं रावण भी ब्राह्मण ही था, जिसका प्रभु श्री राम ने वध किया। प्राचीन समय में जिस वर्ग के व्यक्ति ने भी गलत कर्म किया, उसको दंड मिला। ऋषि मांडव्य को राजा ने चोर समझकर सूली पर चढ़ा दिया था, जबकि राजा जानते थे कि यह ब्राह्मण हैं। अपराधी अपराधी होता है, भले वह कोई भी हो।
सनातन धर्म के अनुसार, शूद्र कौन है?
यास्क मुनि के अनुसार-
जन्मना जायते शूद्रः- जन्म से सभी शूद्र हैं।
और जब तक उनका द्विज जातियों के लिए उपनयन संस्कार नहीं हुआ, तब तक वे शूद्र ही हैं।
महर्षि रैक्व ने क्षत्रिय राजा जानश्रुति को 'शूद्र' इसलिए कहा था क्योंकि राजा जानश्रुति धन के अभिमान से गर्वित था और प्रतिष्ठा के लिए शोकातुर होकर महर्षि रैक्व से ब्रह्म विद्या का उपदेश चाहता था। राजा जानश्रुति, महर्षि रैक्व से ब्रह्म विद्या का ज्ञान पाने के लिए, महर्षि रैक्व के पास बारी-बारी से चार बार धन-संपदा लेकर आया और महर्षि रैक्व को धन से प्रलोभित करना चाहा। इसलिए महर्षि रैक्व ने उस राजा को शूद्र कहकर संबोधित किया।
'शूद्र' शब्द का असली अर्थ- 'सेवा कर्म करने वाला, उपनयन संस्कार हीन, तपस्या से हीन और मनोविकारों (काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, आलस्य, अहंकार आदि) को वश में न रख सकने वाला' होता है।
वास्तव में तो सभी लोग सेवा ही करते हैं, कोई देश सेवा कर रहा है तो कोई परिवार सेवा, प्रधानमंत्री तक।
लेकिन आज वर्तमान में 'शूद्र' शब्द को इतना निंदनीय बना दिया गया है कि हिन्दू धर्म के अनुसार जो जातियाँ 'शूद्र' वर्ग में आती हैं, वे 'शूद्र' शब्द से घृणा करने लगी हैं, जो उनका भ्रम है।
"शूद्र" वर्ग में अनेक जातियां होती हैं, जिसमें से कुछ नीच और कुछ अति नीच जातियां भी होती है। ऐसा नहीं है कि उन जातियों में अच्छे लोग नहीं होते, जो अच्छे लोग होते हैं उन्हें अच्छा कार्य करने की छूट होती है। हिंदू धर्म में जाति का निर्धारण कर्म के आधार पर भी होता है।
ऐसा नहीं है कि किसी को अति नीच कार्य करने के लिए विवश किया जाता है, जिसकी जो मानसिकता होती है, जिसको जो कार्य अच्छा लगता है वह उस कार्य को करता है। आज आप अपने समाज में ही देख लीजिए; कुछ लोग अपने मन के मुताबिक कार्य करते हैं, जिसमें से कुछ लोग अच्छे कार्य करते हैं तो कुछ लोग नीच कार्यों में लिप्त रहते हैं और आप उन्हें मना भी नहीं कर सकते!
आप सिर की समानता पैरों से नहीं कर सकते; ना ही पेट की समानता हाथों से कर सकते हैं; अथवा आप सिर की समानता पैरों, हाथ और पेट से नहीं कर सकते हैं; ना ही पेट की समानता सिर, पैरों या हाथों से कर सकते हैं। लेकिन इनके बिना एक-दूसरे का अस्तित्व भी नहीं है। सभी के अपने अलग-अलग कार्य हैं; ठीक वैसे ही समाज में जाति व्यवस्था भी समाज को सुचारु रूप से कार्यशील रखने के लिए बनाई गई।
दलितों (चमारों इत्यादि) को 'दलित' नाम हिन्दू धर्म ने नहीं दिया है, इससे पहले 'हरिजन' नाम भी हिन्दू धर्म के किसी शास्त्र ने नहीं दिया, हरिजन नाम गांधी जी ने दिया। सवर्ण नाम भी हिन्दू धर्म ने नहीं दिया। आज जो नाम दिए गए हैं, वह पिछले 74 वर्षों की राजनीतिक उपज है और इससे पहले जो नाम दिए गए थे वह पिछले 900 साल की गुलामी की उपज थे।बहुत से ऐसे ब्राह्मण हैं जो आज दलित हैं, मुसलमान हैं, ईसाई हैं या अब वह बौद्ध हैं। बहुत से ऐसे दलित हैं जो आज ब्राह्मण समाज का हिस्सा हैं। अब कुछ वर्षों से ऊंची जाति के लोगों को सवर्ण कहा जाने लगा हैं। यह सवर्ण नाम भी हिन्दू धर्म ने नहीं दिया बल्कि कुटिल राजनैतिक लोगों ने दिया।
ब्राह्मण होना बहुत बड़ी बात नहीं है, क्योंकि हिंदू धर्म में ब्राह्मण के जो कर्म बतलाए गए हैं वह बहुत ही कठिन है। आज भले ही ब्राह्मण उन कर्मों को न करता हो, ब्राह्मण के कर्मों में सुबह दोपहर शाम संध्या वंदन करना व मंत्रों को जागृत करना इत्यादि प्रमुख है, जो कि बहुत ही कठिन कार्य होता है।
और शूद्र होना बहुत दुख की बात नहीं है, क्योंकि शूद्र को हिंदू धर्म में बहुत ही कम और आसान कर्म करने के लिए बतलाए गए हैं। इसी प्रकार क्षत्रिय धर्म और वैश्य धर्म भी अनुपम है।
भगवान का भक्त, चाहे वह किसी भी वर्ण या जाति का क्यों न हो, भगवान का परम प्रिय है, समाज में सम्माननीय है और वह भगवान को प्राप्त होता है।
हमारे हिंदू धर्म शास्त्र में कर्मों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया है- उत्तम (सात्विक कर्म), मध्यम (राजसी कर्म), और नीच कर्म (तामसी कर्म) । हिंदू धर्म ना ही किसी को उत्तम कर्म करने से रोकता है और ना ही किसी को नीच कर्म करने के लिए प्रेरित करता है।
कुछ लोगों की अपनी स्वयं की नीच प्रकृति होती है और वह नीच कर्म ही करते रहते हैं। समाज में कुछ लोग होते हैं जो घृणित कर्म करते हैं और वह भी अपनी इच्छा से करते हैं, वह चाहकर भी स्वच्छता व पवित्रता नहीं रख सकते। सदैव बुरे कर्मों में लिप्त रहते हैं। उनसे तपस्या वाले कर्म व उच्च कोटि के कर्म हो ही नहीं सकते। इसलिए वे वेद पाठ के अधिकारी नहीं बतलाए गए और कुछ अन्य कर्मों के अधिकारी नहीं बतलाए गये। हिंदू धर्म ग्रंथों व इतिहास में अनेक ऐसे व्याख्यान व उदाहरण हैं, जिसमें शूद्र जाति के लोगों ने भी अच्छे अच्छे कर्म किए और अच्छी व श्रेष्ठतम पदवी पाई।
लेकिन शूद्रों का इतना अपमान और अत्याचार; जितना कि बताया जाता है, प्राचीन समय और गुलामी से पहले कभी नहीं हुआ। हुआ तो केवल गुलामी के समय और उसी गुलामी के समय में हिंदू विरोधियों द्वारा हिंदू धर्म ग्रंथों व इतिहास के पन्नों पर और हिन्दू धर्म विरोधी राजनेताओं व हिन्दू धर्म विरोधियों के जुबान पर।
हिंदू विरोधियों ने चुन चुनकर ऐसी-ऐसी हिंदू भावनाओं को ठेस पहुंचाने वाली कहानियां गढ़ी व हिन्दू धर्मग्रन्थों में जगह जगह पर बनावटी व कटु श्लोक भरे, जिनके समर्थन में कुछ बातें इन्होंने मनुस्मृति, पुराणों, इतिहास और उपनिषदों में डाल दिया, ताकि वे कहानियाॅं व श्लोक सच्ची लगें, जबकि वे सरासर झूठ ही हैं और गढ़ी गई हैं।
प्राचीन काल के जितने भी आश्चर्यजनक मंदिर हैं जैसे- तमिलनाडु का नेल्लयाप्पर मंदिर, कोणार्क का सूर्य मंदिर व भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में लाखों स्थानों पर प्राचीन काल के पत्थरों से बने सुन्दरतम मंदिर शूद्रों ने ही तो बनाये हैं कि कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य वर्ग का बना दिया, शूद्र ही तो कारीगर व मजदूर थे ! अगर उस समय शूद्रों का सम्मान नहीं होता, उनको अच्छी सुविधाएँ व आय नहीं दी जाती तो क्या उनकी कुशलता बढ़ सकती थी ? उनको अच्छी सुविधाएँ, सम्मान व आय दी गयी तभी वे कुशल हो सके! ऐसा नहीं है कि "शूद्र" वर्ग अपने गले में हांड़ी और पीछे झाड़ू बांधकर ऐसा कार्य किया।
राजाओं का रथ हांकने वाले भी "शूद्र" वर्ग के ही थे। घोड़ों व हाथियों की देखरेख करने वाले भी "शूद्र" वर्ग के ही थे। भोजन बनाने वाले "शूद्र" वर्ग के ही लोग थे। ऐसा नहीं है कि ये अपने गले में हांड़ी और पीछे झाड़ू बांधकर ऐसा कार्य करते थे।
अनेक पुरातात्विक प्रमाण हैं जिनसे इस मत को बल मिलता है कि ताॅंबे और लोहे के निष्कर्षण की तकनीकी सर्वप्रथम भारत में ही विकसित हुई थी। ऋग्वेद के अनुसार 1000 से 420 BCE में चर्म संस्करण और कपास को रंगने का कार्य होता था। उत्तर भारत में काली पाॅलीश वाले मिट्टी के बर्तनों की सुनहरी चमक को दोहराया नहीं जा सकता और अब भी एक रासायनिक रहस्य है। यह तथ्य आज भारत में रसायन विज्ञान में पढ़ाया जाता है। क्या इस कर्म को ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य के लोग करते थे? नहीं ना! इस कर्म को केवल शूद्र वर्ग के लोग ही करते थे; लेकिन वे अपने गले में हांड़ी और पीछे झाडू बांधकर नहीं करते थे बल्कि सम्मान के साथ करते थे; तब आज उनके किए हुए पर पूरा विश्व रिसर्च करता है।
शूद्र यदि किसी ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य के घर पशुपालन, भोजन निर्माण, देखरेख आदि कार्य अपमानित अवस्था में कभी नहीं कर सकता और ना ही किया।
आप महाभारत का ही दृष्टांत ले लीजिए; महाभारत में महाराजा धृतराष्ट्र के महामंत्री विदुर थे, जो कि एक शूद्र जाति के थे और उनको एक विशेष सम्मान भी प्राप्त था। उनके द्वारा बताई गई विदुर नीति भारत में हिंदूओं के मन में एक अपूर्व निष्ठा उत्पन्न करती है जो कभी कटती नहीं।
रामायण में भी उल्लेख है कि जब रामचन्द्र जी छोटे थे और विद्याध्ययन के लिए गुरुकुल में गये तो वहाॅं शूद्र जाति (निषाद) के लोग भी समान शिक्षा पा रहे थे और उस समय भी वर्ण व्यवस्था थी और यही नियम महाराजा विक्रमादित्य, महाराजा भोज, महाराजा चन्द्रगुप्त से होते हुए सम्राट अशोक तक आया। यह वृत्तांत बहुत जटिल है।
जितना ऊँचा वर्ण और कुल; उतना ही ऊँचा गुण और कर्म भी तो होना चाहिए।
"ऊँचे कुल का जनमिया, जे करनी ऊँच न होय।
सुबरन कलस सुरा भरया, साधू निंदा सोय।।"
सिर्फ ऊँची जाति या ऊँचे कुल में जन्म लेने से कुछ नहीं हो जाता। आपकी जाति के अनुसार आपका कर्म भी होना चाहिये। यह वैसे ही है, जैसे यदि सोने के बरतन में मदिरा रखी जाये तो इससे सोने के गुण फीके पड़ जाते हैं और साधु पुरुषों द्वारा निंदा की जाती है।
अतः नकारात्मक विचारधारा वाले लोगों! हिन्दू धर्म बहुत गूढ़, गहन, विस्तृत और महान है। हिन्दू धर्म को छोड़कर, प्रत्येक धर्म की हर एक लाइन का खंडन हो जाता है।
अत: हिन्दू धर्म पर अंगुली उठाना छोड़ो और अपने अनमोल जिन्दगी का अच्छा उपयोग करना हिन्दू धर्म से सीखो !