रामचरितमानस की चौपाई "ढोल गवांर सूद्र पसु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी" की समीक्षा:-
बहुत महत्वपूर्ण बात ! रामचरितमानस की इस चौपाई पर बहुत ही अधिक बहस और बवाल होते हैं और इस बहस में वे लोग भी शामिल हो जाते हैं जो रामचरितमानस को पूरा पढ़े भी नहीं है, सिर्फ सुन लिए और विरोध करने के लिए खड़े हो गये कि ताड़ना, मतलब, शूद्र को, स्त्री को मारने-पीटने के लिए लिखा है। विशेषकर “सूद्र” एवं “नारी” शब्द को लेकर वामपंथियों और छद्म नारीवादियों द्वारा इसकी निंदा की जाती है। आइये इसे समझते हैं।
इस पर बहस करने से पहले पूरी रामचरितमानस को पढ़ो, रामचरितमानस कब लिखा गया, इस पर क्या क्या बवाल हुआ ? इसके बारे में जानकारी एकत्रित करो, फिर बहस करो कि रामचरितमानस में यह गलत लिखा गया है। चलिए हम इस चौपाई की समीक्षा करते हैं और बताते हैं कि यह चौपाई गलत नहीं है, यह चौपाई सही है।
जब तुलसीदास जी ने रामचरितमानस की रचना की, तो रामचरितमानस पर जमकर बवाल हुआ क्योंकि हिंदू धर्म के सभी ग्रंथ संस्कृत में थे और तुलसीदास जी ने इस ग्रंथ की रचना सरल और सुबोध अवधी भाषा में किया जिसमें संस्कृत, हिंदी और भारत के कई क्षेत्रों की भाषाएं सम्मिलित हैं।
"ढोल गवांर सूद्र पसु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी" यह चौपाई रामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड में 58 व 59वें दोहे के बीच 6वीं चौपाई है। यह चौपाई समुद्र व श्री रामचन्द्र के बीच वार्तालाप की स्थिति का वर्णन करता है। पूरा अंश इस प्रकार है-
दो0-
बिनय न मानत जलधि,
जड़ गए तीन दिन बीति।
बोले राम सकोप तब,
भय बिनु होइ न प्रीति।।57।।
लछिमन बान सरासन आनू।
सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू।।
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती।
सहज कृपन सन सुंदर नीती।।
ममता रत सन ग्यान कहानी।
अति लोभी सन बिरति बखानी।।
क्रोधिहि सम कामिहि हरि कथा।
ऊसर बीज बएँ फल जथा।।
अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा।
यह मत लछिमन के मन भावा।।
संघानेउ प्रभु बिसिख कराला।
उठी उदधि उर अंतर ज्वाला।।
मकर उरग झष गन अकुलाने।
जरत जंतु जलनिधि जब जाने।।
कनक थार भरि मनि गन नाना।
बिप्र रूप आयउ तजि माना।।
दो0-
काटेहिं पइ कदरी फरइ,
कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु,
डाटेहिं पइ नव नीच।।58।।
–*–*–
सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे।
छमहु नाथ सब अवगुन मेरे।।
गगन समीर अनल जल धरनी।
इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी।।
तव प्रेरित मायाँ उपजाए।
सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए।।
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई।
सो तेहि भाँति रहे सुख लहई।।
प्रभु भल कीन्ही मोहि सिख दीन्ही।
मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही।।
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी।।
प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई।
उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई।।
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई।
करौं सो बेगि जौ तुम्हहि सोहाई।।
दो0-
सुनत बिनीत बचन अति,
कह कृपाल मुसुकाइ।
जेहि बिधि उतरै कपि कटकु,
तात सो कहहु उपाइ।।59।।
जब भगवान श्री रामचंद्र जी समुद्र को पार करने के लिए समुद्र की इच्छा मांग रहे थे, तो समुद्र भगवान रामचंद्र जी की उपासना को नहीं समझ रहा था कि भगवान रामचंद्र जी क्या चाहते हैं ? 3 दिन तक समुद्र की पूजा करने के बाद भी समुद्र प्रगट नहीं हुआ, इसलिए श्री रामचंद्र जी ने क्रुद्ध होकर लक्ष्मण से कहा कि लक्ष्मण ! हमारा धनुष बाण लाओ; मैं अभी समुद्र को सुखा देता हूं। जब उन्होंने आग्नेयास्त्र का संधान किया तो पूरा समुद्र उबलने लगा। तब समुद्र ने डरकर अपना रूप धारण किया और श्री राम जी के सामने उपस्थित हुआ और वह इस प्रकार से श्री रामचंद्र जी की विनती कर रहा है कि हे प्रभु ! मुझे दास पर दया कीजिए!
अवधी भाषा में ' ताड़ना ' का अर्थ ' देखना (समझने के अर्थ में, परखना, भाँपना) ' होता है, साथ ही यह श्लेष अलंकार (बहू अर्थी) युक्त शब्द है अर्थात् प्रत्येक संज्ञा के लिए अलग प्रकार से अलग अर्थ; जैसे- "हमने तो उसकी बात पहले ही ताड़ दी थी या वह हमारी बात तुरंत ताड़ गया।"
लेकिन लोग ताड़ना का अर्थ मारना-पीटना निकालते हैं और तुलसीदास जी द्वारा लिखे गए श्री रामचरितमानस की निंदा करते हैं; यह निंदा करने वालों की मूर्खता है। एक कहावत प्रचलित है “अर्थ का अनर्थ करना”, अर्थात् किसी चीज को यदि ठीक ढंग से ना समझा जाये तो उसका गलत अर्थ निकलता है। ठीक ऐसा ही इस दोहे के साथ वामपंथी विचारधारा के लोग करते हैं। विस्तृत और सही अर्थ इस प्रकार है -
ढोल: ढोल के विषय में ताड़ना शब्द का अर्थ इस प्रकार है- ढोल को जब तक पीटा ना जाये, अर्थात् जब तक उस पर थाप ना दी जाए, उसमें से ध्वनि नहीं निकल सकती और उसका कोई उपयोग नहीं होता। यही नहीं, उसकी ताड़ना भी संगीत सम्मत होनी चाहिए ताकि उसमें से ध्वनि लयबद्ध रूप से निकले ना कि उसका स्वर कर्कश हो जाता है। अर्थात् यह भी समझाने वाली चीज है, या आप अपने दिमाग से इसे जैसे जैसे बजाएंगे वैसे वैसे यह कार्य करेगा, बजेगा। ऐसा नहीं है कि बस सेट कर दिए और यह आवाज देने लगेगा।
गवांर: गवांर का अर्थ अज्ञानी होता है और यहां ताड़ना का अर्थ है दृष्टि रखना व समझाना। अज्ञानी को यदि कोई कार्य दिया जाए और उसपर दृष्टि ना रखी जाए तो वह कार्य वह कभी भी सही ढंग से नहीं कर सकता। इसीलिए जब तक किसी को किसी चीज के विषय में पूर्ण ज्ञान ना हो तब तक उसपर दृष्टि रखनी चाहिए।
सूद्र: सबसे अधिक आपत्ति इसी शब्द पर होती है। गुरु के सही ताड़न (मार्गदर्शन) के बिना वो गलत ज्ञान प्राप्त कर सकता है। शूद्र सिर्फ जाति से ही नहीं होते, कर्म से भी हो जाते हैं। कुछ मनुष्य अपनी इच्छा अनुसार ऐसे नीच कर्म करते हैं कि वह शूद्र में गिने जाते हैं, लेकिन शूद्र का असली अर्थ सेवक होता है और शूद्र का यह भी अर्थ होता है नीच कर्म करने वाला। और तुलसीदास जी की रचना में समुद्र का श्री रामचंद्र जी से कहने का कि यही तात्पर्य है कि शूद्र को भी सही रास्ते पर लाने के लिए शिक्षा की जरूरत होती है। शूद्र को ताड़ने का मतलब है कि शूद्र को समझाया जाए कि स्वामी की सेवा कैसे करनी है या यदि वह अपना कर्म कर रहा है तो उसे कैसे करना चाहिए।
पसु: पशुओं को हिन्दू धर्म में बहुत मूल्यवान माना गया है, इसीलिए उन्हें “पशुधन” कहा गया है। इनके विषय में ताड़न का अर्थ है देख-रेख करना। पशु बुद्धिहीन है, जिधर हांक दो, उधर चला जाएगा, किन्तु मूल्यवान है। अतः उसे हर समय सही देख-रेख की आवश्यकता होती है। जब पशु झुंड में चलते हैं तो एक व्यक्ति सदैव देखभाल के लिए उनके साथ होता है ताकि पशु इधर उधर ना भटक जाएं। उसी प्रकार खेत में हल जोतने वाला बैल केवल कृषक के वाणी मात्र से ये समझ जाता है कि उसे किस दिशा में मुड़ना है व कैसे चलना है।
नारी: इसपर भी सर्वाधिक आपत्ति होती है किंतु यहां नारी के विषय में ताड़ना का अर्थ है देखरेख, उनका ध्यान रखना एवं रक्षा करना। नारी समुद्र मंथन में निकली लक्ष्मी के समान पवित्र और आदरणीय है और इसीलिए ये आवश्यक है कि उनका सदैव ध्यान रखा जाए।
हमारी पवित्र हिंदू संस्कृति ऐसे ही महान नहीं है, इसके कुछ संस्कार हैं, कुछ नैतिक मूल्य हैं; इसलिए हमारी हिंदू संस्कृति महान कही जाती है। स्त्री को कभी अकेला नहीं छोड़ना चाहिए, उनका सदैव ध्यान रखना चाहिए और एक रत्न की भांति उनकी रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए।
हमारे हिंदू समाज के प्रत्येक लड़की या स्त्री जब भी कहीं जाती है, तो उसके परिवार वाले भाई या पिता या पति सभी को उसके स्थिति की चिंता रहती है और वह उसकी सुरक्षा के लिए उसके साथ जाते हैं।
स्त्रियों की सुरक्षा से संबंधित अनेक नियम हमारे हिंदू धर्म ग्रंथों में स्थान स्थान पर दिए गए हैं और हिंदू लोग उसका पालन भी करते हैं।
समय व परिस्थिति के अनुकूल हिन्दू या सनातनी स्त्रियाँ युद्ध, व्यवसाय इत्यादि सभी कर्म करती हैं, जैसा कि हिन्दू धर्म आदेश देता है।
आज हिंदू विरोधी और पाश्चात्य विचारधारा वाले लोग भारत में नारियों के समानता और स्वाधीनता और स्वच्छंदता के अधिकार की बात करते हैं। हिंदू धर्म नारियों को स्वतंत्रता, स्वच्छता देता है, जितना उनको जरूरत होती है।
जो लोग इस बात का खंडन करते हैं वह केवल हिंदू विरोधी, नास्तिक और पाश्चात्य विचारधारा वाले लोग होते हैं जो नारियों को केवल भोग की वस्तु समझते हैं, उन्हें हवस का शिकार बनाते रहते हैं चाहे वह पुत्री, स्त्री, भाभी, देवरानी या कोई भी हो।
तो यही वास्तव में इस चौपाई का अर्थ है जिसे जान-बूझ कर, बिना समझे रामायण और श्री राम के चरित्र हनन हेतु एवं महान सनातन हिन्दू धर्म में फूट पड़वाने हेतु उपयोग में लाया जाता है।
आज भी गोस्वामी तुलसीदास की हस्तलिखित रामचरितमानस का अयोध्या काण्ड 447 साल बाद भी सहेज कर रखी गई है। गोस्वामी के गांव राजापुर से उनकी हस्तलिखित रामचरितमानस का दर्शन किया जा सकता है।
हस्तलिखित रामचरितमानस को देखकर पता चलता है कि 500 साल में हिंदी वर्णमाला के 15 अक्षर बदल चुके हैं। उनके हाथ का लिखा अब केवल अयोध्या कांड ही बचा है, बाकी सब विलुप्त हो गए। इस ग्रंथ को संरक्षित करने के लिए भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा जापानी तकनीक का इस्तेमाल किया गया है। इसमें जहां-जहां से कागज हट गया था, वहां पर जापानी लेप के जरिए उसको जोड़ा गया है।
वास्तव में तुलसीदास जी द्वारा रचित रामचरितमानस बहुत ही अनुपम, अद्वितीय और भवसागर से पार करने वाली सुन्दर रचना है।
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