दुख क्यों मिलता है ? कर्म का फल कैसे मिलता है ?
सभी मनुष्य सुख चाहते हैं, लेकिन सभी लोग चाह कर भी सुखी नहीं हो पाते। चाहते कुछ हैं और होता कुछ है। चाहे सुख प्राप्ति के लिए वह कितना ही प्रयास क्यों न कर लें। ऐसा क्यों होता है ?
लोग कहते हैं कि, अगर आप सुखी रहना चाहते हैं तो अच्छे कर्म करो, क्योंकि अच्छे कर्मों से सुख मिलता है और बुरा कर्म करने से दुख मिलता है। लेकिन देखने में यह आता है कि जो लोग अच्छे कर्म करते हैं वह भी दुखी देखे जाते हैं और बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो कोई भी अच्छा कर्म नहीं करते, तब भी सुखी रहते हैं। लेकिन यह भी सत्य है कि भगवान के भक्त और अच्छे कर्म करने वाले भी बहुत सुखी हैं और गलत कर्म करने वाले व भगवान को न मानने वाले भी बहुत दुखी हैं। परन्तु यह कुछ उलटा फल क्यों दिखाई देता है ? बहुत से मनुष्य ऐसे हैं जो इसी उलटा फल के कारण नास्तिक (ईश्वर में अविश्वासी) तक बन जाते हैं। इसका क्या कारण है ? अगर आप नहीं जानते हैं तो इस लेख के द्वारा जान जाएंगे :-
मनुष्य जो भी सुख या दुख पाता है, वह 97% उसके पूर्व जन्म के कर्म का फल होता है। जो जो कर्म हमने पूर्व जन्मों में किए हैं, उनका फल हम इस जन्म में पाते हैं। और जो कर्म हम इस जन्म में अच्छा या बुरा कर रहे हैं, इसका फल हमें अगले जन्मो में भोगना है। और कुछ कर्मों का फल इसी जन्म में भोगना होता है, यही सत्य है। यह सिद्धांत हमारे धर्म शास्त्रों या हिन्दू धर्म शास्त्रों में बताया गया है। अगर आप आस्तिक (ईश्वर और धर्म शास्त्रों में विश्वास करने वाले) हैं तो यह बात आपको माननी चाहिए। आस्तिक वही होता है, जो ईश्वर और वेद - शास्त्रों में श्रद्धा व विश्वास रखें और उसके कहे हुए नियमों का पालन करें।
अब अगर आप दुखी हैं तो आप कह सकते हैं कि हम पूर्व जन्मों के कर्मों के कारण दुख पा रहे हैं, तो सुखी कैसे बनेंगे ? वह पूर्व जन्म के गलत कर्म तो हमें सदा दुख देते ही रहेंगे ! तो ऐसी बात भी नहीं है, इसका भी उपाय है !
हर जीव को अपने कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। मनुष्य जो भी सुख - दुख, संपत्ति - विपत्ति पाता है, वह उसके कर्मों का ही फल होता है, चाहे वह इस जन्म के कर्मों का फल हो या पूर्व जन्म के कर्मों का फल।
इस जन्म के कर्म, पूर्व जन्म के कर्मों से प्रभावित रहते हैं। पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार ही मनुष्य को देश - काल, समाज, माता - पिता, भाई - बंधु, जात - पात व शरीर आदि की प्राप्ति होती है। पूर्व जन्मो के कर्मों के अनुसार ही मनुष्य को अच्छा या खराब देश या स्थान मिलता है, अच्छा या खराब समाज मिलता है, अच्छा या खराब परिवार मिलता है, अच्छा या खराब शरीर मिलता है, अच्छी या खराब बुद्धि मिलती है, अच्छी या खराब मन बनता है और साथ ही अच्छा या खराब समय या नक्षत्र में जन्म भी होता है। पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार ही उसका अंतःकरण बनता है और पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार ही मनुष्य का स्वभाव होता है। अच्छा या खराब जो सब कुछ मिलता है, सब पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार ही मिलता है।
किसी जीव को जन्म क्यों लेना पड़ता है ? अपने किए गए कर्मों को भोगने के लिए, बदला देने - लेने के लिए, हिसाब - किताब चुकता करने के लिए किसी जीव को जन्म लेना पड़ता है।
अब प्रश्न उठता है कि, मनुष्य पूर्व जन्मो के कर्मों का फल कब भोगता है और इस जन्म के कर्मों का फल कब भोगता है ? इसका उत्तर यह है, कि मनुष्य अपने स्वभाव के अनुसार ही कर्म करता है। पूर्व जन्म के अच्छे - बुरे कर्म अपना फल देने के लिए एक क्रम से लाइन लगाए रहते हैं। कर्म केवल जड़ होते हैं, स्वयं फल देने की शक्ति नहीं रखते हैं। ईश्वर ही सभी जीवों को उनके कर्मों का फल भोगाता है और फल भोगाने की व्यवस्था करता है। ईश्वर सभी के हृदय में रहते हैं। जैसा कर्म भोगने का समय आता है, उस कर्म के अनुसार ही जीव की वैसी भावना बनती है। वैसी बुद्धि बनती है और उसी के अनुसार कर्म करने को प्रेरित होता है। जब खराब कर्म या बुरे कर्म को भोगने का समय आता है, तो मनुष्य की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, फिर वह गलत कार्य करता है और उस गलत कार्य का फल होता है।
उसी प्रकार, जब पूर्व जन्म के किसी अच्छे कर्म का फल भोगने का अवसर आता है, तब वह कर्म पहले मनुष्य के मन में अच्छे विचार उत्पन्न करता है, फिर वह बुद्धि पूर्वक सोच समझकर अच्छे ढंग से कार्य करता है और उसका कार्य सफल होता है और वह अपने कर्म का अच्छा फल प्राप्त कर लेता है।
पूर्व जन्म के कर्म, इस जन्म के कर्म को प्रभावित करते हैं। अनजान में किये गये कर्म अनजान में भोगने पड़ते हैं। जानबूझकर किए गए कर्मों का फल विवश होकर भोगना पड़ता है। पूर्व जन्म में बचपन में किए गए कर्मों का फल बचपन में ही भोगना पड़ता है और जवानी में किए गए कर्मों का फल जवानी में भोगना पड़ता है। जिस अवस्था में हम पूर्व जन्म में जो कर्म किए रहते हैं, इस जन्म में हमें उस कर्म को उसी अवस्था में भोगना पड़ता है।
मनुष्य अपने कर्मों का फल कहां-कहां भोगता है ? यह भी जानना चाहिए !
जिस कर्म के फल को भोगने की व्यवस्था यहां इस जन्म में बनती है, यही भोगना पड़ता है। कुछ कर्म ऐसे होते हैं, जिनका फल बहुत महान और उत्तम होता है, उस महान उत्तम फल के महान सुख को भोगने की व्यवस्था यहां नहीं बन पाती है; क्योंकि व्यक्ति अगर यहां अधिक सुख करने लगे, तो जल्दी ही रोगी बन जाता है। इसलिए उन श्रेष्ठ पुण्यदायक कर्मों के फल को भोगने के लिए मनुष्य को स्वर्ग की प्राप्ति होती है। वहां पर वह बहुत काल तक सुख भोगता रहता है।
कुछ कर्म इतने खराब होते हैं, कि उनका फल मनुष्य यहां नहीं भोग पाएंगे। उसका फल इतना कठोर होता है कि यहां पर मनुष्य उसका दंड पाते ही प्राण त्याग देगा, अतः वैसे कर्मों का फल भोगने के लिए उसे अधम लोकों, जैसे नरक आदि या अधम योनियों की प्राप्ति होती है और वही पर वह पापी बहुत काल तक कष्ट भोगते रहते हैं।
कुछ कर्म ऐसे होते हैं जिनको भोगने की व्यवस्था न यहां बन पाती है, न अन्य लोकों में बन पाती है। इसलिए उन कर्मों का फल भोगने के लिए ईश्वर सपने (स्वप्न) की व्यवस्था करते हैं और वह सपने में उन कर्मों का फल भोगता है। मनुष्य कभी ऐसा सपना देखता है, जिसमें उसे असीम सुख की प्राप्ति होती है और कभी ऐसा सपना देखता है जिसमें उसे घोर कष्ट की प्राप्ति होती है। स्वप्न में भी जागृत की भांति ही सृष्टि होती है। कुछ लोग कहते हैं कि मनुष्य जागृत अवस्था में सुनी हुई, देखी हुई और अनुभव की हुई वस्तुओं को सपने में देखता है। लेकिन ऐसी बात नहीं है, देखी, सुनी हुई को और ना देखी, ना सुनी हुई को भी देखता है तथा ना अनुभव की हुई को भी सपना या स्वप्न में देखता है। इससे सिद्ध होता है कि कुछ कर्मों का फल भोगाने के लिए भगवान उसके कर्म संस्कारों की वासना के अनुसार अपनी योग माया से वैसे स्वप्न का निर्माण कर देते हैं। स्वप्न की रचना जीव के कर्म के अनुसार, ईश्वर की शक्ति से होती है।
अब एक अन्य प्रश्न उठता है कि, कर्मों का नाश केवल भोग से ही होता है या उसका कोई दूसरा उपाय है ? देखिए-
भिन्न भिन्न दृष्टि से कर्मों की भिन्न भिन्न श्रेणियां हैं। जैसे -
गुणों की दृष्टि से कर्म तीन प्रकार के होते हैं -
1. पुण्य कर्म (कर्म, राजसी कर्म),
2. पाप कर्म (विकर्म या निषिद्ध कर्म, तामसी कर्म),
3. निष्काम कर्म (अकर्म, सात्विक कर्म)
कर्मों का फल भोगने की दृष्टि से कर्म तीन प्रकार के होते हैं -
1. प्रारब्ध कर्म, 2. संचित कर्म, 3. क्रियमाण कर्म।
हम जो भी कर्म करते हैं, वह क्रियमाण कर्म कहलाता है। उसमें से बहुत से अच्छे व बुरे कर्म संचित भी होते जाते हैं और संचित कर्म राशि एक या एक से अधिक जन्मो की भी हो सकती है। इस संचित कर्म राशि को मनुष्य एक या एक से अधिक जन्मो में भोगता है। अतः इस संचित कर्म राशि में से जिस कर्म समूह को भोगने के लिए यह शरीर मिलता है, उस कर्म समूह को प्रारब्ध कर्म कहा जाता है।
इसमें प्रारब्ध कर्मों का नाश तो केवल भोग से ही होता है। इसमें से कुछ कर्मों के फल को तो निष्ठा पूर्वक भोगना पड़ता है, कुछ को दूसरों की इच्छा से भोगना पड़ता है और कुछ को अपनी इच्छा से भोगना पड़ता है। इसमें से जिन कर्मों को मनुष्य अपनी इच्छा से भोगता हैं, वह तरीका प्रायश्चित कहलाता है। जिन कर्मों को दूसरे की इच्छा के कारण भोगना पड़ता है, वह तरीका सेवा कहलाता है। और जब कर्मों का फल बिना इच्छा के भोगना पड़ता है, तब वह दंड कहलाता है।
सुख कैसे मिलेगा ? दुखों से छुटकारा पाने का उपाय:
संचित व क्रियमाण कर्मों का नाश निष्काम भाव से किए हुए यज्ञ, दान, तप, सेवा आदि सत्कर्म से तथा प्राणायाम, सत्संग, भजन, ध्यान आदि परमेश्वर की भक्ति या उपासना से हो सकता है। इससे संचित कर्म राशि तो जलकर भस्म हो जाती है और क्रियमाण कर्म निष्काम कर्म बन जाते हैं। उत्तम कर्म भगवान को अर्पण कर देने से उससे छुटकारा हो जाता है।
वे मनुष्य, जो दुखी हैं; उन्हें भगवान की कृपा से या इस जन्म में जो भी शक्ति, साधन और सुविधा मिलती है, उसका सदुपयोग करके अपने जीवन को बहुत हद तक सुखी बना सकते हैं और पूर्व जन्म के संचित कर्मों को छोटा या समाप्त कर सकते हैं।
कुछ लोग कुतर्क करते हैं कि हम इस व्यक्ति के साथ यह गलत कर्म (चोरी, डकैती, बलात्कार, हत्या आदि) करेंगे, क्योंकि इसने पूर्व जन्म में हमारे साथ किया है। लेकिन यह सरासर गलत है। शास्त्र विरूद्ध, जो भी कर्म आप जानबूझकर करेंगे, वह नया पाप कर्म बनेगा, और उसका गलत फल कर्ता को भोगना पड़ेगा। वह कर्म, जो आपसे अनजान में या गलती से या अज्ञानता वश हो जाते हैं, वही कर्मों को पूर्व जन्म का कर्म फल माना जाता है, जानबूझकर किये जाने वाले कर्मों को नहीं।
पहले तो मनुष्य को धर्म - शास्त्रों का अध्ययन करके व सत्संग करके ज्ञान प्राप्त करना चाहिए, कि क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है ? क्या गलत है और क्या सही है ? सुख प्राप्ति का सच्चा उपाय क्या है ? दुख के निवारण का क्या उपाय है ? जब, यह सब ज्ञान आपको या मनुष्य को मिल जाएंगे तो आप अपने दुखों से छुटकारा पा जाएंगे।
हमने धर्म - शास्त्रों का अध्ययन करके, अब तक जो कुछ ज्ञान पाया है, उसके आधार पर मैं पूरे विश्वास से कहता हूं कि, दुखों से पार पाने का सबसे उत्तम उपाय है - भगवान की भक्ति।
सात्विक आहार ग्रहण करें और सात्विक विचार रखें। सदाचार का पालन करें। धर्म पर चलें। प्राण भले ही चला जाए पर धर्म न छूटे, क्योंकि यह शरीर तो नाशवान है। अहिंसा का पालन करें, लेकिन अहिंसा के पालन में भी कई परिस्थितियां होती हैं, उसे भी आपको जानना चाहिए; जैसे- धर्म की रक्षा के लिए अगर हिंसा करना अनिवार्य हो, तो आप हिंसा कर सकते हैं, लेकिन आप अनायास या अपने स्वार्थ के लिए दूसरों किसी भी प्रकार के जीवों की हिंसा नहीं कर सकते। ऐसा कोई भी कार्य जानबूझकर नहीं करना चाहिए, जिसमें किसी भी प्राणी को दुख हो या उसका नुकसान हो। मनुष्य को जानबूझकर किसी को किसी प्रकार का दुख देने से बचना चाहिए और जहां तक बन सके, दुखियों का दुख दूर करने का सदैव प्रयास करते रहना चाहिए।
मनुष्य जब भगवान की भक्ति करता है और धर्म पालन के लिए कष्ट भी सह लेता है तथा अपने कर्तव्यों का पालन करता है तो वही उसके लिए तपस्या है। और इस तपस्या का प्रभाव यह होता है कि उसके जीवन में दुख व संकट नहीं आते हैं, अगर आते भी हैं तो वह उसको धैर्य पूर्वक सहन कर लेता है, घबराता नहीं है और भगवान की भक्ति के प्रभाव से भयंकर दुख भी या संकट भी कट जाते हैं या बहुत छोटा पड़कर अपने प्रभाव को समाप्त कर देते हैं।
अगर मनुष्य दिल से और साथ साथ नियम पूर्वक भगवान की भक्ति करें, पाखंड या दिखावा ना करें तो उसके भाग्य में जो दुख लिखा होता है, उस दुख को भगवान मिटाकर सुख में बदल देते हैं; ऐसा हमारे धर्म शास्त्रों में कहा गया है। जैसे कि विनय पत्रिका में एक पद में लिखा है कि, ब्रह्मा जी माता पार्वती जी से कह रहे हैं कि हे माता ! यह भाग्य लिखने का काम किसी और को दे दो, मैं जिसके भाग्य में उसके कर्म के अनुसार दुख लिख देता हूं, वह व्यक्ति अगर आपके पति की थोड़ी भी भक्ति पूर्वक सेवा कर देता है, तो वह प्रसन्न हो जाते हैं और उसके भाग्य में लिखे दुख को मिटाकर सुख कर देते हैं।
अतः जो मनुष्य दिल से भगवान की भक्ति करता है, उसका दुख दूर होकर जीवन मंगलमय हो जाता है। उसके सभी कर्म (संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण) समाप्त हो जाते हैं और अंत में वह जन्म मरण के चक्कर से छुटकारा पाकर ईश्वर के परम धाम में चला जाता है और अपने जन्म को सफल बना लेता है।
अगर कोई किसी का कर्ज लिया है और उसे वह नहीं भर पाता है, तो उससे छुटकारा पाने के लिए वह उससे माफ करने के लिए कहे ! यदि कर्ज देने वाला माफ कर देता है, तब तो कर्ज उतर जाता है और यदि माफ नहीं करता है तो कर्ज लेने वाला उसे किसी न किसी रूप में भरेगा। अन्यथा केवल भगवान की भक्ति ही उसे उससे बचा सकती है।
निष्कर्ष
केवल निष्काम भाव से किया गया कर्म ही, पाप कर्म और पुण्य कर्म, दोनों को नष्ट करता है। ईश्वर का स्मरण ना करना मनुष्य की बड़ी भारी कृतघ्नता है। जब हम माता - पिता व गुरु के उपकार का बदला नहीं चुका सकते, तब परम हितैषी ईश्वर के उपकार का बदला कैसे चुकाया जा सकता है ! इसलिए ईश्वर को भूल जाना नीच से भी अति नीच कर्म है। अतः मनुष्य अपना परम कर्तव्य समझकर ईश्वर की भक्ति सदा सर्वदा करता रहे।
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