होलिका दहन और होली की गलत परम्परा
प्रिय मित्रों ! होलिका दहन और होली एक विशेष त्यौहार है जो हिंदू धर्म का आवश्यक अंग माना जाता है, क्योंकि होलिका दहन के दिन हिन्दू वर्ष की समाप्ति और होली के दिन से हिन्दू नववर्ष प्रारम्भ होता है। लेकिन,
क्या इसको (होलिका दहन और होली) मनाने का तरीका ठीक है ?
क्या यह हिंदू धर्म (सनातन धर्म) के नियमों का पालन करता है ?
इन बातों पर कोई भी विचार और विमर्श नहीं करता ! और इन्हीं नतीजों का परिणाम है कि समाज कष्ट पा रहा है, क्योंकि कोई भी कार्य यदि गलत तरीके से होगा तो उससे हानि ही होगी और यदि वह कार्य, जिसे आप गलत तरीके से कर रहे हैं, वह कार्य अगर हिन्दू धर्म से सम्बंधित है, तो आप दोष हिन्दू धर्म को देंगे।
अतः हम इस लेख में होलिका दहन और होली के त्योहार में व्याप्त कुरीतियों के बारे में चर्चा करेंगे और जानेंगे कि इसमें क्या-क्या गलत होता है, जो कि हिंदू धर्म को बदनाम करता है। तो चलिए; सबसे पहले यह जानते हैं कि आज होलिका दहन को लेकर क्या मान्यता है और हिंदू धर्म ग्रंथों में इसके क्या प्रमाण हैं, फिर इसको जानने के बाद, हम इसमें कमियों को ढूंढने का प्रयास करेंगे !
होलिका दहन की प्रचलित विधि
होलिका दहन फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को मनाया जाता है। इसका मुख्य संबंध होली से है। जिस प्रकार श्रावणी को ऋषि पूजन, विजयादशमी को देवी पूजन और दीपावली को लक्ष्मी पूजन करने के बाद भोजन किया जाता है, उसी प्रकार होलिका का व्रत रखने वाले, होलिका ज्वाला देखकर भोजन करते हैं।
होलिका दहन में पूर्व विद्धा प्रदोषव्यापिनी पूर्णिमा ली जाती है।
प्रदोषव्यापिनी ग्राह्या पूर्णिमा फाल्गुनी सदा। (नारद)
निशागमे तु पूज्यते होलिका सर्वतोमखै। (दुर्वासा)
सायाह्ने होलिकां कुर्यात् पूर्वाह्ने क्रीडनं गवाम् । (निर्णयामृत)
यदि वह दो दिन प्रदोषव्यापिनी हो तो दूसरी लेनी चाहिए।
दिनद्वये प्रदोषे चेत् पूर्णा दाह: परेऽहनि। (स्मृतिसार)
यदि प्रदोष में भद्रा हो तो उसके मुख की घड़ी त्याग कर प्रदोष में दहन करना चाहिए।
पूर्णिमाया: पूर्वे भागे चतुर्थप्रहरस्य पञ्चघटीमध्ये भद्रया मुखं ज्ञेयम्। (ज्योतिर्निबन्ध)
तस्या भद्रामुखं त्यक्त्वा पूज्या होला निशामुखे। (पृथ्वीचन्द्रोदय)
भद्रा में होलिका दहन करने से जनसमूह का नाश होता है।
भद्रायां द्वे न कर्तव्ये श्रावणी फाल्गुनी तथा। (स्मृत्यन्तर)
प्रतिपदा, चतुर्दशी, भद्रा और दिन - इनमें होली जलाना सर्वथा त्याज्य है। कुयोग वश यदि जला दी जाए तो वहां के राज्य, नगर और मनुष्य अद्भुत उत्पातों से एक ही वर्ष में हीन हो जाते हैं।
प्रतिपद्भूतभद्रासु यार्चिता होलिका दिवा।
संवत्सरं तु तद्राष्ट्रं पुरं दहति साद्भुतम्।। (चन्द्रप्रकाश)
यदि पहले दिन प्रदोष के समय भद्रा हो और दूसरे दिन सूर्यास्त से पहले पूर्णिमा समाप्त होती हो तो, भद्रा के समाप्त होने की प्रतीक्षा करके सूर्योदय होने से पहले होलिका दहन करना चाहिए।
यदि पहले दिन प्रदोष न हो और हो भी तो रात्रि भर भद्रा रहे (सूर्योदय होने से पहले न उतरे) और दूसरे दिन सूर्यास्त से पहले ही पूर्णिमा सीमा समाप्त होती हो, तो ऐसे अवसर में पहले दिन भद्रा हो तो भी उसके अन्त में होलिका दहन कर देना चाहिए।
यदि पहले दिन रात्रि भद्रा रहे और दूसरे दिन प्रदोष के समय पूर्णिमा का उत्तरार्ध मौजूद भी हो तो उस समय यदि चंद्रग्रहण हो तो ऐसे अवसर में पहले दिन भद्रा हो तब भी सूर्यास्त के बाद होलिका जला देनी चाहिए।
यदि दूसरे दिन प्रदोष के समय पूर्णिमा हो और भद्रा उससे पहले उतरने वाली हो, किंतु चंद्रग्रहण हो तो, चन्द्रग्रहण के बाद स्नान करके, होलिका दहन करना चाहिए।
यदि फाल्गुन दो हो (मलमास हो) तो, शुद्ध मास (दूसरे फाल्गुन) की पूर्णिमा को होलिका दहन करना चाहिए।
आज विद्वान लोग कहते हैं कि होली का उत्सव रहस्यपूर्ण है। इसमें होली, ढूंढा, प्रह्लाद और स्मरशांति तो है ही; इनके सिवा इस दिन 'नवान्नेष्ठि' यज्ञ भी संपन्न होता है।
व्रती को चाहिए कि वह फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को स्नान आदि करके "मम बालकबालिकादिभि: सह सुखशांतिप्राप्त्यर्थं होलिका व्रतं करिष्ये।" से संकल्प करके लकड़ी के टुकड़ों से खड्ग बनाकर बच्चों को दे और उनको उत्साही सैनिक बनाये। वे नि:शङ्क होकर खेलकूद करें और परस्पर हंसें।
इसके अतिरिक्त होलिका के दहन स्थान को जल के प्रोक्षण से शुद्ध करके उस पर सूखा काष्ठ, उपले और सूखे कांटे आदि भलीभांति स्थापित करें। तत्पश्चात सायंकाल के समय और हर्षोत्फुल्लमन होकर संपूर्ण नगरवासियों एवं गाजे-बाजे के साथ होलिका स्थल के समीप जाकर शुभासन पर पूर्व या उत्तरमुख होकर बैठे। फिर "मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य पुरग्रामस्थजनपदसहितस्य वा सर्वापच्छान्तिपूर्वकसकलशुभफलप्राप्त्यर्थं ढुण्ढाप्रीतिकामनया होलिकापूजनमं करिष्ये।" -- यह संकल्प करके पूर्णिमा प्राप्त होने पर सूतिका या चाण्डाल (अपवित्र) के घर से बालकों द्वारा अग्नि मंगवाकर होलिका को दीप्तिमान करें और जब अच्छी तरह आग जलने लगे तो गन्ध पुष्पादि से उसका पूजन करके "असृक्पाभयसंत्रस्तै: कृता त्वं होलि बालिशै:। अतस्त्वां पूजयिष्यामि भूते भूतिप्रदा भव।।" -- इस मंत्र से तीन परिक्रमा और प्रार्थना करके अर्घ्य दे और लोक प्रसिद्ध होलिकास्तम्भ (प्रह्लाद) या शास्त्रीय यज्ञस्तम्भ को शीतल जल से अभिषिक्त करके उसे एकांत में रख दें।
चाण्डालसूतिकागेहाच्छिशुहारितवह्निना।
प्राप्तायां पूर्णिमायां तु कुर्यात् तत्काष्ठदीपनम्।। (स्मृतिकौस्तुभ)
तत्पश्चात, घर से लाए हुए खेड़ा, खांडा (होलिका दहन से पहले,सरसों के बुकवे या उबटन से परिवार के सभी सदस्यों की मालिश करने से निकलने वाला अपद्रव्य) और वरकूलिया आदि को डालकर, गेहूं और जौ के पौधों की बाली या पुंज और चने के पौधों के गुच्छों को होलिका की ज्वाला से सेंकें, जिससे कि नवान्नेष्ठि यज्ञ पूर्ण हो जाए, फिर यज्ञ सिद्ध नवान्न तथा होलिका की अग्नि और थोड़ा थोड़ा सा भस्म लेकर घर आये। घर आकर वासस्थान के प्राङ्गण में गोबर से चौका लगाकर होलिका की अग्नि में तपाये हुए अनाजों की स्थापना करें। उनका रात्रि भर संरक्षण किया जाए, फिर अगले होलिका दहन तक, उनको घर में कहीं रख दिया जाए। इस प्रकार करने से ढूुढा के दोष शांत हो जाते हैं और होली के उत्सव से व्यापक सुख - शांति होती है।
कथा यह है कि, सतयुग में हिरण्यकशिपु की बहन होलिका, जो स्वयं आग से नहीं जलती थी, अपने भाई के कहने से प्रह्लाद को जलाने के लिए उसको गोद में लेकर आग में बैठ गई। परंतु भगवान की कृपा से ऐसा हुआ कि होलिका जल गई किंतु प्रह्लाद को आंच भी नहीं लगी। बाद में हिरण्यकशिपु भी मारा गया।
इस अवसर पर नवीन धान्य (गेहूं, जौ, चने आदि) की खेती पक कर तैयार हो गई और मानव समाज में उनके उपयोग में लेने का प्रयोजन भी उपस्थित हो आया। किंतु धर्मप्राण हिंदू यज्ञेश्वर को अर्पण किए बिना नवीन अन्न को उपयोग में नहीं ले सकते, अतः फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को समिधा स्वरूप उपले आगि का संचय करके उसमें यज्ञ की विधि से अग्नि का स्थापन, प्रतिष्ठा, प्रज्वलन और पूजन करके 'रक्षोघ्न' सूक्त से यव-गोधूमादि के चरुस्वरूप अन्न बालियों की और हुतशेष धान्य को घर लाकर प्रतिष्ठित किया। उसी से प्राणों का पोषण होकर प्रायः सभी प्राणी हष्ट पुष्ट और बलिष्ठ हुए और होलिका दहन के रूप में 'नवान्नेष्टि' यज्ञ को संपन्न किया।
इस संपूर्ण विधि और कहानी का जब आप विश्लेषण करेंगे और हिंदू धर्म के मूल नियमों से इनका मिलान करेंगे तो आप निम्न प्रश्नों का जवाब नहीं दे पाएंगे ! प्रश्न इस प्रकार हैं-
1. हमारे वेद और पुराण; जो कि हिंदू धर्म के मूल ग्रंथ माने जाते हैं, वे क्या होलिका दहन को प्रतिवर्ष मनाना सुनिश्चित करते हैं ?
2. हिंदू धर्म के अनुसार, चिता में अग्नि लगाना लगाना या शव दाह का उचित समय सूर्यास्त के पहले ही है, सूर्यास्त के बाद शव दाह प्रत्येक परिस्थिति में वर्जित है, क्योंकि सूर्यास्त के बाद शव दाह करने से मृतक की आत्मा प्रेत योनि से नहीं छूटती अर्थात् मुक्ति नहीं मिलती। होलिका दहन भी कहीं न कहीं से दाह संस्कार से ही संबंध रखता है, क्योंकि होलिका दहन के बाद, शव दाह के समान, शरीर को अशुद्ध माना जाता है; तो फिर नियमों का उल्लंघन करते हुए सूर्यास्त के बाद इसमें आग लगाने को क्यों कहा गया है ?
3. हिंदू धर्म के नियम के अनुसार, शव दाह के लिए चिता में जो अग्नि प्रज्वलित की जाती है, वह शुद्ध होनी चाहिए, वह ना ही अपवित्र होनी चाहिये और ना ही किसी दूसरी चिता से लाई जानी चाहिए, ना ही अपवित्र घर से। तो फिर होलिका के दहन के लिए अग्रि को अपवित्र घर से लाने का प्रयोजन क्यों बनाया गया ?
चाण्डालसूतिकागेहाच्छिशुहारितवह्निना।
प्राप्तायां पूर्णिमायां तु कुर्यात् तत्काष्ठदीपनम्।। (स्मृतिकौस्तुभ)
4. होलिका दहन की आग में जो जौ, गेहूं, चने आदि नवीन अन्न को तपाकर घर लाया जाता है, वह भी सर्वदा अनुचित है, क्योंकि समाज में सभी लोग किसान ही नहीं होते कि उनके पास गेहूं, जौ, चना, अलसी आदि फसल होगी और होलिका दहन शव दाह के समान ही है, अतः किसी चिता की अग्नि में अनाज के पौधों को तपाकर घर लाना और उन्हें रखना, हिंदू धर्म के नियमों का उल्लंघन है, फिर ऐसा क्यों कहा गया है और ऐसा होता भी है ?
5. रही बात होलिका दहन की अग्नि में 'नवान्नेष्टि यज्ञ' की; तो, यह कहां का सनातन नियम है कि चिता के समान अग्नि में नवीन अन्न से 'नवान्नेष्टि यज्ञ' सम्पन्न किया जाए ?
हिन्दू धर्म (सनातन धर्म) में गृहस्थ के लिए प्रतिदिन "पंचमहाभूत यज्ञ" करने का नियम तो है, फिर 'नवान्नेष्टि यज्ञ' होलिका जैसी अग्नि में क्यों ?
6. हिंदू धर्म के अनुसार, जब भाभी माता के समान और देवर पुत्र के समान है तथा और भी संबंध, जैसे, प्रत्येक पराई स्त्री को माता के समान देखने को कहा गया है, तो फिर होली में यह जो 'जोगीरा' इत्यादि अश्लील पद्य और अश्लील गाने क्यों गाये जाते हैं,
और भी अनेक अश्लीलता भरे घृणित कर्म किए जाते हैं, और अश्लीलता के साथ रंग खेले जाते हैं, ये सब हिंदू धर्म में कहां से आ गए ? क्योंकि हिंदू धर्म तो ऐसा करने की बिल्कुल भी अनुमति नहीं देता!
इन संपूर्ण बातों पर विश्लेषण करने के बाद यही निष्कर्ष निकलता है कि; जिस प्रकार से पुराणों , स्मृतियों में और भी हिंदू धर्म के अनेक इतिहास ग्रंथों में, हिंदू धर्म विरोधियों और वामपंथी विद्वानों द्वारा हिंदू धर्म को तोड़ने और हिन्दू धर्म को घृणित बनाने के लिए जो जो प्रक्षिप्त अंश भरे गए और अनेक गलत पुस्तकें लिखी गयी, उसी का शिकार, होली और होलिका दहन भी हो गया। होलिका दहन में व्याप्त कुरीतियां और होली में व्याप्त व्यभिचार; हिन्दू धर्म को घृणित बनाने के लिए, हिन्दू धर्म विरोधियों और वामपंथियों तथा धर्म का उल्लंघन करने वाले भोग-विलासी हिन्दुओं द्वारा लाया गया है।
अब आपके मन विचार आ रहा होगा कि, क्या होलिका दहन और होली नहीं मनाया जाना चाहिये ? तो इसका जवाब है - होलिका दहन और होली मनाया जाना चाहिये, लेकिन गलत तरीके से नहीं, बल्कि सही तरीके से । तो वह सही तरीका क्या है ? आइये जानते हैं -
1. होलिका दहन सूर्यास्त से पहले हो जाना चाहिये।
2. होलिका का दहन तुरंत प्रज्वलित पवित्र अग्नि से करें।
3. जहां तक होलिका की अग्नि में नवान्नेष्टि यज्ञ या अन्न को तपाने की बात है, तो अन्न को उसी में जला दें, घर पर न लाएं।
4. होली का त्योहार में महिलाएं महिलाओं से और पुरुष पुरुषों के साथ रंग खेलें। स्त्रियां स्त्रियों के साथ और केवल अपने पति और अपने बच्चों के साथ रंग खेले।
लड़कियां लड़कियों के साथ और लड़के केवल लड़कों के साथ रंग खेलें। होली के त्योहार में किसी को, किसी के प्रति अश्लीलता का विचार थोड़ा भी न आए।
वास्तव में होली एक पवित्र और लोगों में मेल-मिलाप को बढ़ाने वाला त्यौहार है। अतः इसे प्रेम पूर्वक व सादगी से मनाएं।
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