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Kanik ki kutniti | महाभारतकालिन कणिक की नीति

दिनों दिन पांडवों की बढ़ती हुई ख्याति को देखकर, राजा धृतराष्ट्र के भाव में परिवर्तन हो गया। दूषित भाव के उत्पन्न होने के कारण वे अत्यंत चिंतित रहने लग

राजनीतिज्ञ कणिक द्वारा धृतराष्ट्र को बताई गयी कूटनीति:  

दिनों दिन पांडवों की बढ़ती हुई ख्याति को देखकर, राजा धृतराष्ट्र के भाव में परिवर्तन हो गया। दूषित भाव के उत्पन्न होने के कारण वे अत्यंत चिंतित रहने लगे। जब उनकी चिन्ता अत्यंत बढ़ गई, तब उन्होंने अपने श्रेष्ठ मंत्री राजनीति विशारद कणिक को बुलवाया।

कणिक की नीति

धृतराष्ट्र ने कहा--  राजनीतिज्ञ कणिक!  मेरे चित्त में बड़ी जलन हो रही है। तुम निश्चित रूप से बतलाओ की पांडवों के साथ मुझे संधि करनी चाहिए या द्रोह । मैं तुम्हारी बात मानूंगा ।

कणिक ने कहा-  राजन!  आप मेरी बात सुनिए! मुझ पर नाराज ना होइएगा। मैं आपकी सफलता के लिए और दुर्योधन को राजा बनाने में सहायक कुछ बहुमूल्य नीति को बताता हूॅं , सुनिए- 

1. राजा को सर्वदा दंड देने के लिए उद्धत रखना चाहिए और दैव के भरोसे ना रहकर पौरूष प्रकट करना चाहिए। 

2. अपने मन में कोई कमजोरी न आने दें और हो भी तो किसी को मालूम ना होने दें। दूसरों की कमजोरी जानता रहे।

3. यदि शत्रु का अनिष्ट करना प्रारंभ कर दें तो उसे बीच में ना रोके, क्योंकि कांटे की नोक भी यदि भीतर रह जाए तो बहुत दिनों तक मवाद देती रहती है।

4. शत्रु को कमजोर समझकर आंख नहीं मूंद लेनी चाहिए। यदि समय अनुकूल ना हो तो उसकी ओर से आंख - कान बंद कर दें, परंतु हमेशा सावधान रहें ।

5. शरणागत शत्रु पर भी दया नहीं दिखानी चाहिए । शत्रु के तीन ( मंत्र, बल और उत्साह), पाॅंच  (सहाय, सहायक, साधन, उपाय, देश और काल का विभाग ) तथा सात  ( साम, दाम, दंड, भेद, माया, इंद्रजालिक प्रयोग और शत्रु के गुप्त कार्य ) राज्यांगों को नष्ट करता रहे।

6. जब तक समय अपने अनुकूल ना हो, तब तक शत्रु को कंधे पर चढ़ा कर भी ढ़ोया जा सकता है परंतु समय आने पर मटके की तरह पटक कर उसे फोड़ डालना चाहिए।

7. साम, दाम, दंड, भेद आदि किसी भी उपाय से अपने शत्रु को नष्ट कर देना ही राजनीति का मूल मंत्र है।

8. राजन !  चतुर राजा डरपोक राजाओं को भयभीत कर दे, शूरवीर के सामने हाथ जोड़ ले, लोभी को कुछ दे दे, और बराबर तथा कमजोर को पराक्रम दिखाकर बस में कर ले, शत्रु चाहे कोई भी हो उसे नष्ट कर डालना चाहिए।

9. सौगंध खाकर और धन की लालच देकर, जहर या धोखे से भी शत्रु को ले बीतना चाहिए।

10. मन में द्वेष रहने पर भी मुस्कराकर बातचीत करनी चाहिए, मारने की इच्छा रखता और मारता हुआ भी मीठा ही बोले, मारकर कृपा करें, अफसोस करें और वह शत्रु को संतुष्ट रखें परंतु उसकी चूक देखते ही उस पर चढ़ बैठे। 

11. जिन पर शंका नहीं होती, उन्हीं पर अधिक शंका करनी चाहिए क्योंकि वैसे लोग अधिक धोखा देते हैं । 

12. जो विश्वास पात्र नहीं हैं उन पर तो विश्वास नहीं ही करना चाहिए, जो विश्वास पात्र हैं उन पर भी अधिक (आंखें मूंदकर) विश्वास नहीं करना चाहिए।

13. सर्वत्र पाखंडी, तपस्वी आदि के भेष में परीक्षित गुप्तचर रखने चाहिए। बगीचे, टहलने के स्थान, मंदिर, सड़क, तीर्थ, चौराहे, कुएं, पहाड़, जंगल और सभी भीड़भाड़ के स्थानों में गुप्तचरों को अदलते - बदलते रहना चाहिए।

14. वाणी का विनय और हृदय की कठोरता, भयंकर काम करते हुए भी मुस्कुरा कर बोलना, यही नीति निपुणता का चिन्ह है।

15. हाथ जोड़कर, सौगंध खाकर, आश्वासन देना, पैर छूना और आशा बॅंधाना, यही सब ऐश्वर्य प्राप्ति के उपाय हैं।

16.  जो अपने शत्रु से संधि करके निश्चिंत हो जाता है उसका होश तब ठिकाने आता है, जब उसका सर्वनाश हो जाता है।

17. अपनी बातें केवल शत्रु से ही नहीं, मित्र से भी छुपानी चाहिए । 

18. किसी शत्रु को आशा दे भी तो बहुत दिनों की। बीच में अड़चन डाल दे,  कारण पर कारण गढ़ता जाए।

राजन! आपको पांडू पुत्रों से अपनी रक्षा करनी चाहिए। वे दुर्योधन आदि से बलवान हैं। आप ऐसा उपाय कीजिए कि उनसे कोई भय न रहे और पीछे पश्चाताप भी ना करना पड़े। इससे अधिक और मैं क्या कहूं। यह कह कर कणिक अपने घर चला गया। धृतराष्ट्र और भी चिंतातूर हो कर सोच विचार करने लगे।

कणिक के द्वारा चढ़ाये जाने पर धृतराष्ट्र ने शकुनी इत्यादि से मंत्रणा करके वारणावत में लाक्षागृह बनवाकर वहाॅं कुन्ती के साथ पांचों पांडवों को भेजकर उन्हें जलवा डालने की आज्ञा योजना बनायी। वैसे शत्रुओं के प्रति कणिक की नीति बहुत ही पावरफुल है।

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