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Karma shiddhant: कर्म किसे कहते हैं, कार्य करने का सही तरीका

कर्म किसे कहते हैं ? कर्म कितने प्रकार का होता है ? कर्म क्यों किया जाता है ? कर्म कैसे होता है ? कर्म किस उद्देश्य से किया जाता है ? कर्म करने का सही

कर्म सिद्धांत - रहस्य

कर्म किसे कहते हैं ? कर्म कितने प्रकार का होता है ? कर्म क्यों किया जाता है ? कर्म कैसे होता है ? कर्म किस उद्देश्य से किया जाता है ? कर्म करने का सही तरीका क्या है ? आदि विषयों पर और वह भी हिंदू धर्म के अनुसार हम इस लेख में बहुत गंभीर चर्चा करेंगे !

कर्म सिद्धांत, कर्म का रहस्य, कर्म किसे कहते हैं ?

कर्म किसे कहते हैं ? "इस लोक और परलोक में सुखदायी फल प्राप्त करने के लिए की जाने वाली उत्तम क्रिया का नाम 'कर्म' है।" कर्म की गति बड़ी गहन है। इसी से भगवान बहुत जोर देकर उसे समझने के लिए कहते हैं। 

हम लोगों ने मन, वाणी और शरीर से होने वाली संपूर्ण क्रियाओं का ही 'कर्म' नाम दे रखा है; लेकिन वास्तव में ऐसी बात नहीं है। अगर ऐसी बात ही रहती तो,

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिता:। (गीता 4/16)

भगवान क्यों कहते कि कर्म क्या है और अकर्म क्या है ? इस विषय में बुद्धिमान पुरुष भी मोहित हो जाते हैं। (गीता 4/16) 


कार्य / कर्म करने का सही तरीका 

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं -
य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत:।
    न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।
(गीता 16/23)

अर्थ- जो पुरुष शास्त्र विधि को त्यागकर, अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न तो सिद्धि को प्राप्त होता है, न परम गति को और न सुख को ही। 

अर्थात् प्रत्येक कर्म को करने के नियम होते हैं। यदि आपको किसी कर्म के करने की विधि की जानकारी न हो, तो आप जानकारी प्राप्त करने की कोशिश करें। 

कुछ लोग ऐसे होते हैं कि वे धर्म तो मानते है लेकिन उन्हें धार्मिक कार्यों के नियम की जानकारी नहीं होती है और वे अपनी इच्छा से मनमाने ढंग से धार्मिक कर्म करने लगते हैं। उन्हें धार्मिक कार्यों के नियम की जानकारियां प्राप्त करने की कोशिश करने प्रयास करना चाहिए । भक्ति पूर्वक या श्रद्धा पूर्वक भी उल्टा या मनमाने ढंग से कोई भी कर्म (विशेषकर धार्मिक कर्म) नहीं करना चाहिये। कम करें या मत करें, लेकिन कोई भी धार्मिक कर्म गलत नियम से ना करें, नहीं तो लाभ के स्थान पर हानि ही होगी।

परन्तु कुछ लोग घमंडी प्रकृति के होते है, जो जानबूझकर मनमाने ढंग से कर्मों को करते हैं, वे पुण्य के भागी न होकर महान  पाप के भागी ही होते है, और नियमों का उल्लंघन करके किया गया उनका वह कर्म भी सिद्ध नहीं होता। 

जैसे- हमने कितनी महिलाओं को देखा है, कि वे लोग स्नान के बाद बिना श्रृंगार किये ही पूजा पाठ करने लगती हैं। कुछ महिलाएं व लड़कियां बिना बाल (केश) बांधे ही पूजा - पाठ करती हैं।  

कुछ महिलाएं व लड़कियां बिना माता पार्वतीजी की पूजा किये ही सबसे पहले भगवान शंकर का पूजा करने लगती हैं, जो कि शास्त्र विरूद्ध है। अगर महिलाएं व लड़कियां माता पार्वतीजी की पूजा करने से पहले भगवान शंकर या भोलेनाथ का पूजन करती हैं, तो वे जिन्दगी में कभी सुख प्राप्त नहीं कर सकेंगी और अगर ऐसा करने पर भी सुखी हैं तो उनका पूर्व जन्म का कोई कर्म साथ दे रहा है, जिस दिन वह पुण्य क्षीण हो जाएगा, उस दिन से वह भंयकर दुख भोगेंगी। क्योंकि यह माता पार्वतीजी का महिलाओं व कुंआरी लड़कियों को श्राप है। 

कुछ भक्त लोग भगवान शंकर की आधी परिक्रमा करने के बजाय अनेक परिक्रमा करने लगते हैं, जो कि गलत व दुखदायक है।

कुछ लोग जप तो करते हैं, लेकिन उन्हें जप की विधि नहीं पता होती है। वे लोग जप के माला को गले या बाहु में धारण करते हैं, और जप के समय उसी से जप करने लगते हैं। वे ना ही जप करने से पहले जप माला का संस्कार करते हैं और ना ही जप माला की वंदना, और ना ही जप की अंतिम क्रिया। जप का मंत्र भी अशुद्ध ही  बोलते हैं। 

हिन्दू धार्मिक स्थलों पर भी वहां के पंडा व ब्राह्मणों द्वारा हिन्दू धर्म के अनेक नियमों का उल्लंघन देखा जाता है। कोई ब्राह्मण पान खाते हुए हवन करा रहा है, तो कोई आधा व गलत मंत्र ही बोल रहा है। कोई भक्त अगर देवी या देवता को वस्त्र अर्पित कर रहा है तो वहां उपस्थित पंडा उससे जबरन अधिक पैसों की मांग कर रहा है। 

इसी प्रकार से अनेक कर्म हैं, जो आज समाज में गलत तरीके से होते हैं और अच्छा फल न मिलने पर दोष हिन्दू धर्म को दिया जाता है। और जो समाज में दुख का कारण है, वह यही है कि लोग कर्म तो कर रहे हैं, लेकिन गलत तरीके से।

कर्मों में कभी आसक्ति नहीं दिखानी चाहिए। अर्थात् अपने कर्तव्यों (माता - पिता, गुरु, भाई - बन्धु, तथा अपने समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी) को छोड़ने का विचार कभी नहीं करना चाहिये। क्योंकि, 

    कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।

    मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ।।

(गीता 2/47)

अर्थात्-  तेरा कर्म करने में ही अधिकार है उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए  तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो।

इस श्लोक में यह बताया गया है कि फल की इच्छा न करते हुए केवल कर्म करना चाहिए और ऐसा नहीं कि कर्म ही छोड़ दें। धर्म के अनुसार, जो आपका कर्तव्य बनता है, उसे अपनी जिम्मेदारी समझकर अवश्य निभाएं।

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:।

शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मण:।। (गीता 3/8)

अर्थ- तू शास्त्रविहित (वेद-शास्त्र के अनुसार) कर्तव्य कर्म कर; क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं होगा।

वे महा मूर्ख होते है जो अपने कर्तव्यों का पालन न कर अपने कर्म को छोड़ देते हैं। जैसे - बुद्ध अपने सोयें हुए परिवार को छोड़ कर चलें गये।

कुछ लोग कुतर्क करते हैं कि हम इस व्यक्ति के साथ यह गलत कर्म (चोरी, डकैती, बलात्कार, हत्या आदि) करेंगे, क्योंकि इसने पूर्व जन्म में हमारे साथ किया है। लेकिन यह सरासर गलत है। शास्त्र विरूद्ध, जो भी कर्म आप जानबूझकर करेंगे, वह नया पाप कर्म बनेगा, और उसका गलत फल कर्ता को भोगना पड़ेगा। वह कर्म, जो आपसे अनजान में या गलती से या अज्ञानता वश हो जाते हैं, वही कर्मों को पूर्व जन्म का कर्म फल माना जाता है, जानबूझकर किये जाने वाले कर्मों को नहीं।

!! कर्म का सिद्धांत !!

भिन्न भिन्न दृष्टि से कर्मों की भिन्न भिन्न श्रेणियां हैं। जैसे -

गुणों की दृष्टि से कर्म तीन प्रकार के होते हैं - 

1.  पुण्य कर्म (कर्म, राजसी कर्म), 

2. पाप कर्म (विकर्म या निषिद्ध कर्म, तामसी कर्म)

3. निष्काम कर्म (अकर्म, सात्विक कर्म)

कर्मों का फल भोगने की दृष्टि से कर्म तीन प्रकार के होते हैं - 

1. प्रारब्ध कर्म, 2. संचित कर्म, 3. क्रियमाण कर्म। 

हम जो भी कर्म करते हैं, वह क्रियमाण कर्म कहलाता है। उसमें से बहुत से अच्छे व बुरे कर्म संचित भी होते जाते हैं और संचित कर्म राशि एक या एक से अधिक जन्मो की भी हो सकती है। इस संचित कर्म राशि को मनुष्य एक या एक से अधिक जन्मो में भोगता है। अतः इस संचित कर्म राशि में से जिस कर्म समूह को भोगने के लिए यह शरीर मिलता है, उस कर्म समूह को प्रारब्ध कर्म कहा जाता है। 

कर्ता के भावों के अनुसार कोई भी क्रिया कर्म (उचित कर्म), विकर्म (निषिद्ध कर्म) और अकर्म (निष्काम कर्म) रूप में बदल सकती है। 

भाव के अनुसार, कर्म  कैसे कर्म, विकर्म या अकर्म में बदल जाता है ? देखिए -

1. फल की इच्छा से सद्भावना पूर्वक जो विधि संगत उत्तम कर्म (यज्ञ, तप, दान, सेवा आदि) किया जाता है, उसका नाम ' कर्म ' होता है। 

2. बुरी नीयत या किसी को नुकसान पहुंचाने के उद्देश्य से जो यज्ञ, तप, दान, सेवा आदि कर्म किया जाता है, वह कर्म तमोगुण प्रधान बन जाने से ' विकर्म ' (पाप, निषिद्ध कर्म) हो जाता है। जैसे गीता में कहा गया है -

जो तप मूढ़ता पूर्वक हठ से, मन, वाणी या शरीर की पीड़ा सहित या दूसरे का अनिष्ट करने की नीयत से किया जाता है, वह तप तामस कहा गया है। (गीता 17/19)

3. फल की इच्छा त्याग कर भगवान के लिए या भगवद्अर्पण बुद्धि से अपना कर्तव्य समझकर, जो उत्तम कर्म किया जाता है, वह कर्म मुक्ति के अलावा दूसरा फल नहीं देता है। इस कारण वह कर्म, ' अकर्म ' (निष्काम कर्म) माना जाता है। 

भाव के अनुसार, विकर्म कैसे कर्म, विकर्म और अकर्म में बदल जाता है ? देखिए - 

1. इस लोक या परलोक में अच्छा फल पाने के लिए, शुद्ध नीयत से की जाने वाले हिंसा आदि कर्म जैसे- युद्ध में देश की रक्षा के लिए दुश्मन को मारना, अपने प्राणों की रक्षा के लिए शत्रु को मारना, किसी सज्जन पुरुष या अपने स्वजनों या अन्य किसी के प्राणों की रक्षा के लिए किसी को मारने के लिए विवश होना इत्यादि कर्म, ' कर्म ' समझे जाते हैं। 

जैसे, गीता में भगवान अर्जुन से कहते हैं- युद्ध करना तेरे लिए सब प्रकार से अच्छा है, क्योंकि या तो युद्ध में मरकर तू स्वर्ग को प्राप्त होगा या युद्ध जीतकर पृथ्वी को भोगेगा। इससे हे अर्जुन ! युद्ध के लिए निश्चय वाला होकर तू खड़ा हो जाओ। (गीता 2/37) 

2. बुरी नियत से किए जाने वाले विकर्म तो निश्चित ही ' विकर्म '(पाप कर्म) हैं। 

3. अपना कर्तव्य समझकर, फलासक्ति व अहंकार से रहित होकर, जो हिंसा आदि निषिद्ध कर्म किए जाते हैं, वह फल उत्पादक ना होने के कारण, ' अकर्म ' समझे जाते हैं। 

जैसे- गीता में भगवान, अर्जुन से कहते हैं- यदि तुझे स्वर्ग या राज्य की इच्छा ना हो, तो भी सुख-दुख, लाभ-हानि, जय - पराजय को समान समझकर युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को प्राप्त नहीं होगा।

भाव के अनुसार अकर्म, कैसे कर्म, विकर्म और अकर्म में बदल जाता है ? वह देखिए-

1. जब कोई साधक पुरुष मन, वाणी और शरीर से होने वाले सभी क्रियाओं को त्यागकर एकांत में बैठ जाता है और अपने को सब क्रियाओं का त्यागी समझता है, तब उसके द्वारा कोई भी क्रिया भले ही ना होती दिखे, लेकिन उस साधक में त्याग का अभिमान तो हो ही जाता है। इस अभिमान के कारण व त्याग, अकर्म ना होकर ' कर्म ' बन जाता है।

2. कर्तव्य प्राप्त होने पर, जब कोई व्यक्ति भय या स्वार्थ के कारण अपने कर्तव्य कर्म से मुंह मोड़ लेता है और बुरी नीयत से लोगों को ठगने के लिए कर्मों के त्याग का पाखंड करता है; तब उससे भले ही कोई कर्म ना होता दिखे लेकिन उसके द्वारा किया गया वह पाखंड, दुख रूप फल उत्पन्न करने वाला हो जाता है और विकर्म या पाप कर्म या निषिद्ध कर्म बन जाता है। 

गीता में भगवान कहते हैं - जो मूढ़ बुद्धि पुरुष, कर्मेन्द्रियों को हठ पूर्वक रोककर ,मन से इंद्रियों के भोगों की इच्छा करता है, वह मिथ्याचारी (झूठ्ठा), और पाखंडी कहा जाता है। 

3. जो साधक परमात्मा से अभिन्न भाव को प्राप्त कर लिया है और उसमें कर्ता का अभिमान नहीं रह गया है; ऐसे  स्थितिप्रज्ञ पुरुष के अंदर समाधि काल में जो क्रिया का अत्यान्तिक अभाव है, वह अकर्म यथार्थ अकर्म (निष्काम कर्म)  है।

कर्ता के इस रहस्य को तत्व से जानने वाला पुरुष ही बुद्धिमान है, योगी है, व सब कर्मों को करने का तरीका जानने वाला है और वही संसार के बंधन से छूट सकता है।

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