महिषविमर्दिनी स्तोत्रम्:
भगवती महाशक्ति माता जगत जननी जगदम्बा जी के विभिन्न स्वरूप हैं, और उनकी महिमा भी अनन्त है। भक्तगण माता जगदम्बा जी की पूजा विभिन्न स्वरूपों में अपनी रूचि के अनुसार तन, मन, धन और सच्ची श्रद्धा से करते हैं और माता उन्हें न्याय के अनुकूल इच्छित फल देती हैं।
वैसे तो श्री दुर्गा सप्तशती में भी माता दुर्गा जी के कई रूपों का वर्णन किया गया है, और दैत्यराज महिषासुर के वध का वर्णन भी श्री दुर्गा सप्तशती में किया गया है, लेकिन यहाॅं हम रूद्रयामल को आधार मानकर आप लोगों के परम कल्याण के लिए माता महिषमर्दिनी जी के चमत्कारिक महामन्त्र और स्तोत्र को प्रस्तुत कर रहे हैं-
विनियोग:
अस्य श्री महिषमर्दिनी दुर्गामन्त्रस्य, ककुप् छन्द:, महिषमर्दिनी देवता, ॐ बीजं, महिषमर्दिनीशक्ति: स्वाहा कीलकं मम श्रीमहिषमर्दिनीदुर्गाप्रसन्नार्थे मन्त्र जपे विनियोग:।
ऋष्यादिन्यास:
. दीर्घतमसे ऋषये नम: (शिरसि)।
. ककुप्छन्दसे नम: (मुखे)।
. महिषमर्दिनीदुर्गादेवतायै नम: (हृदये)।
. ॐ बीजाय नम: (गुह्ये)।
. महिषमर्दिनी शक्तये नम: (पादयो:)।
. स्वाहा कीलकाय नम: (नाभौ) ।
. विनियोगाय नम: (सर्वाङ्गे) ।
करन्यास:
. "महिषसिंहे हुं फट् ।" अंगुष्ठाभ्यां नम:।
. "महिषसिंहे हुं फट् ।" तर्जनीभ्यां नम:।
. "महिषसिंहे हुं फट् ।" मध्यमाभ्यां नम:।
. "महिषसिंहे हुं फट् ।" अनामिकाभ्याम् नम:।
. "महिषसिंहे हुं फट् ।" कनिष्ठाभ्याम् नम:।
हृदयादिन्यास:
. "महिषसिंहे हुं फट् ।" हृदयाय नम:।
. "महिषसिंहे हुं फट् ।" शिरसे स्वाहा।
. "महिषसिंहे हुं फट् ।" शिखायै वौषट्।
. "महिषसिंहे हुं फट् ।" कवचाय हुं।
. "महिषसिंहे हुं फट् ।" नेत्रत्राय वषट्।
. "महिषसिंहे हुं फट् ।" अस्त्राय फट्।
माता महिषमर्दिनी जी का ध्यान:
अष्टौ भुजाङ्गीं महिषस्य मर्दिनीं,
सशंखचक्रां शरचापधारिणीम्।
तां सूर्यकोटिप्रतिमां लुलस्थितां,
दुर्गा ं सदा तां शरणं व्रजाम्यहम्।।
मूलमन्त्र:
" ॐ महिषमर्दिनि स्वाहा।"
महिषमर्दिनी जी का अद्भुत स्तोत्र:
अयि गिरिनन्दिनी नन्दितमेदिनी,
विश्वविनोदिनी नन्दिनुते।
गिरीवरविन्ध्यशिरोधिनीवासिनी,
विष्णुविलासिनी जिष्णुनुते।।1।।
भगवती हे शितिकण्ठकुटुम्बिनी,
भूरिकुटुम्बिनी भूरिकृते।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनी,
रम्यकपर्दिनी शैलसुते।।2।।
सुरवरवर्षिणी दुर्धरधर्षिणि,
दुर्मुखमर्षिणि हर्षरते।
त्रिभुवनपोषिणि शंकरतोषिणि,
किल्बिसमोषिणि घोषरते।।3।।
दनुजनिरोषिणि दितिसुतरोषिणि,
दुर्मदशोषिणि सिन्धुसुते।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि,
रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।4।।
अयि जगदम्ब मदम्बकदम्ब,
वनप्रियवासिनि हासरते।
शिखरिशिरोमवि तुंग हिमालय,
शृंगनिजालय मध्यगते।।5।।
मधुमधुरे मधुकैटभगञ्जिनि,
कैटभभंजिनि रासरते।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि,
रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।6।।
अयि शतखण्ड विखण्डितरूण्ड,
वितुण्डितशुण्ड गजाधिपते।
रिपुगजगण्ड विदारणचण्ड,
पराक्रमशुण्ड मृगाधिपते।।7।।
निजभुजदण्ड निपातितखण्ड,
विपातितमुण्ड भटाधिपति।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि,
रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।8।।
अयि रणदुर्मुद शत्रुवधोदित,
दुर्धरनिर्जर शक्तिभृते।
चतुरविचार धुरीणमहाशिव,
दूतकृत प्रमथाधिपते।।9।।
दुरितदुरीह दुराशयदुर्मति,
दानवदूत कृतान्तमते।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि,
रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।10।।
अयि शरणागत वैरिवधुवर,
वीरवराभव दायकरे।
त्रिभुवनमस्तक शूलविरोधि,
शिरोधिकृत शलकरे।।11।।
दुमिदुमितामर दुन्दुभिनाद,
महोमुखरिकृत दिड़्गकरे।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि,
रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।12।।
अयि निजहुड़्कृति मात्रनिराकृत,
धूम्रविलोचन धूम्रशते।
समरविशोषित शोणितबीज,
समुद्भवशोणित बीजलते।।13।।
शिव शिवशुम्भ निशुम्भमहाहव,
तर्पितभूत पिशाचरते।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि,
रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।14।।
धनुरनुषंग-रणक्षणसंग,
परिस्फुरदंग नटत्कटके ।
कनकपिशंग-पृषत्कनिषंग,
रसद्भटशृंग-हताबटुके।।15।।
कृतचतुरंग-बलक्षितिरंग,
घटद्वहुरंग-रटद्बटुके ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि,
रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥16॥
जय जय जप्य जये जयशब्द,
परस्तुतितत्पर-विश्वनुते।
झणझणझिझिमि-झिंकृतनूपुर,
शिञ्जितमोहित-भूतपते।।17।।
नटितनटार्धनटीनटनायक,
नाटितनाट्य-सुगानरते ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि,
रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥18॥
अयि सुमनः-सुमनः-सुमनः,
सुमनः-सुमनोहर-कान्तियुते।
श्रितरजनी-रजनीरजनी,
रजनीरजनीकर-वक्त्रवृते।।19।।
सुनयन-विभ्रमर-भ्रमर,
भ्रमर-भ्रमर-भ्रमराधिपते ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि,
रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥20॥
महित-महाहववल्लभ-तल्लिक,
वल्लित-रल्लित-भल्लिरते।
विरचितवल्लिकपल्लिक-मल्लिक,
झिल्लिक-भिल्लिकवर्गवृते।।21।।
श्रुतकृतफुल्ल-समुल्लसितारुण,
तल्लज-पल्लव-सल्ललिते।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि,
रम्य कपर्दिनि शैलसुते॥22॥
अविरल-गण्ड-गलन्म,
दमेदुर-मत्तमतंगजराजपते ।
त्रिभुवन-भूषण-भूत-कलानिधि,
रूप-पयोनिधि-राजसुते।।23।।
अयि सुदतीजन-लालसमानस,
मोहन-मन्मथ राजसुते।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि,
रम्य कपर्दिनि शैलसुते॥24॥
कमलदलामल-कोमलकान्ति,
कलाकलितामल-भाललते ।
सकल-विलास-कलानिलय,
क्रम-केलिचलत्कल-हंसकुले।।25।।
अलिकुल-संकुल-कुन्तलमंडल,
मौलिमिलद्-बकुलालिकुले ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि,
रम्य कपर्दिनि शैलसुते॥26॥
करमुरलीरव-वीजित-कूजित,
लज्जित-कोकिल-मञ्जमते ।
मिलितमिलिन्द-मनोहर-गुञ्जित,
रञ्जित-शैलनिकुञ्जगते।।27।।
निजगणभूत-महाशबरीगण,
रंगणसम्भृत-केलिरते ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि,
रम्य कपर्दिनि शैलसुते॥28॥
कटितटपीत दुकूलविचित्र,
मयूखतिरस्कृत-चण्डरुचे।
प्रणतसुराऽसुर-मौलिमणि,
स्फुरदंशुल-सन्नख-चन्द्ररुचे।।29।।
जितकनकाचल-मौलिमदोर्जित,
निर्भरकुञ्जर-कुम्भकुचे ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि,
रम्य कपर्दिनि शैलसुते॥30॥
विजित-सहस्रकरैक-सहस्र,
करैक-सहस्रकरैकनुते ।
कृतसुरतारक-संगरतारक,
संगरतारक-सूनुसुते।।31।।
सुरथ-समाधि-समानसमाधि,
समानसमाधि-सुजातरते ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि,
रम्य कपर्दिनि शैलसुते॥32॥
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पदकमलं करुणानिलये,
वरिवस्यति योऽनुदिनं सुशिवे ।
अयि कमले कमलानिलये,
कमलानिलयः स कथं न भवेत्।।33।।
तव पदमेव परं पदमस्त्विति,
शीलयतो मम किं न शिवे ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि,
रम्य कपर्दिनि शैलसुते॥34॥
कनकलसत्कलशीक-जलैरनुषिञ्चति,
ते रणरंग भुवम् ।
भजति स किं न शचीकुचकुम्भ,
तटीपरिरम्भ-सुखानुभवम्।।35।।
तव चरणं शरणं करवाणि,
मृडानि सदा मयि देहि शिवम् ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि,
रम्य कपर्दिनि शैलसुते॥36॥
तवविमलेन्दुकुलंवदनेन्दुमलं,
सकलं ननु कूलयते।
किमु पुरुहूत-पुरीन्दुमुखी,
सुमुखीभिरसौ विमुखीक्रियते।।37।।
मम तु मतं शिवनामधने भवती,
कृपया किमु न क्रियते ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि,
रम्य कपर्दिनि शैलसुते॥38॥
अयिमयि दीनदयालुतया,
कृपयैव त्वया भवितव्यमुमे ।
अयि जगतो जननी कृपयासि,
यथासि तथानुमितासिरते।।39।।
यदुचितमत्र भवत्युररी,
कुरुतादुरुतापमपाकुरुते ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि,
रम्य कपर्दिनि शैलसुते ।।40।।
!! इति श्री महिषविमर्दिनी स्तोत्रम् !!