पूजहि विप्र सकल गुण हीना, चौपाई का सही अर्थ:
"पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना" यह चौपाई श्रीरामचरितमानस के अरण्यकाण्ड में 33 व 34वें दोहे के बीच दूसरी चौपाई है। यह चौपाई राक्षस कबन्ध व श्री रामचन्द्र के बीच वार्तालाप की स्थिति का वर्णन करता है।
इस चौपाई का विरोध इतना अधिक किया जाता है कि नकारात्मक विचारधारा वाले लोगों द्वारा "पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना।।" नामक चौपाई को तोड़ मरोड़ कर-
"पूजहि बिप्र सकल गुण हीना। शूद्र न पूजहु वेद प्रवीणा।। और
पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न पूजहु वेद प्रबीना।। और
पूजहि विप्र ज्ञान-गुण हीना, सूद्र न पूजहि वेद प्रवीणा।।" आदि तरह-तरह का रूप दे देकर अनेक प्रकार के भ्रामक लेख लिखे जाते हैं और भ्रामक विडियो बनाकर, तथा सम्मेलनों में गलत प्रकार से भाषण देकर श्रीरामचरितमानस की निंदा की जाती है। दरअसल श्रीरामचरितमानस की कुछ चौपाइयों के सहारे कुछ नकारात्मक विचारधारा वाले लोगों के द्वारा आजकल ऑनलाइन व ऑफलाइन दोनों विधियों द्वारा हिन्दू नवयुवकों व नासमझ हिन्दुओं को भ्रमित किया जाता है व श्रीरामचरितमानस का दुष्प्रचार किया जाता है। ताकि भोले-भाले हिन्दू लोग, हिन्दू धर्म से विमुख होकर अन्य धर्मों को ग्रहण कर लें।
महत्वपूर्ण बात! श्रीरामचरितमानस की "ढोल गवांर सूद्र पसु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी" इस चौपाई के बाद 'पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना' नामक चौपाई पर बहुत ही अधिक बहस और बवाल होते हैं और इस बहस में वे लोग भी शामिल हो जाते हैं जो श्रीरामचरितमानस को पूरा पढ़े भी नहीं है, सिर्फ कैसे भी सुन लिए और विरोध करने के लिए खड़े हो गये कि श्रीरामचरितमानस में जातिवाद भरा है। विशेषकर 'सूद्र' एवं 'नारी' शब्द को लेकर नास्तिकों द्वारा इसकी निंदा की जाती है। तो आइये, इसे समझते हैं।
इस पर बहस करने से पहले पूरी श्रीरामचरितमानस को पढ़ो, और साथ ही साथ श्रीरामचरितमानस कब लिखा गया, इस पर क्या-क्या बवाल हुआ, इसके बारे में भी जानकारी एकत्रित करो, फिर बहस करो कि श्रीरामचरितमानस में यह गलत लिखा गया है। तो चलिए, सबसे पहले हम श्रीरामचरितमानस की रचना व इस पर हुए विवादों के बारे में थोड़ा सा समझते हैं।
श्रीरामचरितमानस की रचना कब हुई:
जब भारत पर मुगल शासक अकबर का शासन था, उस समय श्रीरामचरितमानस की रचना की गई। इस श्रीरामचरितमानस के रचनाकार गोस्वामी तुलसीदास जी हैं, जो अनेक भाषाओं के जानकार और अयोध्या में ही रहकर उस समय की स्नातकोत्तर तक की पढ़ाई किए थे। इस महाकाव्य का निर्माण 76 साल की उम्र में उन्होंने किया था। श्रीरामचरितमानस भारतीय संस्कृति में अपना एक विशेष स्थान रखता है और श्रीरामचरितमानस की लोकप्रियता हिन्दू समाज में अद्वितीय है।
श्रीरामचरितमानस पर हुए विवाद:
जब गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस की रचना की, तो श्रीरामचरितमानस पर जमकर बवाल हुआ क्योंकि हिंदू धर्म के सभी ग्रंथ संस्कृत में थे और तुलसीदास जी ने इस ग्रंथ की रचना सरल और सुबोध अवधी भाषा में किया जिसमें इन्होंने संस्कृत आदि भाषाओं को भी सम्मिलित किया।
श्रीरामचरितमानस पर बवाल सिर्फ दो बातों को लेकर हुआ-
पहला; यह संस्कृत भाषा में क्यों नहीं है ?
दूसरा; 'ढोल गवांर सूद्र पसु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी' नामक चौपाई पर।
(लेकिन कुछ लोग समय के बदलते दौर के साथ "पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना" आदि चौपाइयों का खण्डन करके श्रीरामचरितमानस की निंदा किया करते हैं।)
उस समय बवाल इतना अधिक बढ़ गया कि श्रीरामचरितमानस को जला देने की स्थिति उत्पन्न हो गई। अनेक हिंदू धर्म के विद्वान इसके पक्ष में भी थे और विपक्ष में भी विद्वानों की कमी नहीं थी। बहुत बड़ी धार्मिक पंचायत हुई, जिसमें यह निर्णय लिया गया कि यदि भगवान भोलेनाथ की सहमति इस ग्रंथ को मिले, तभी इस ग्रंथ को सही माना जाएगा अन्यथा गलत। इसके लिए श्रीरामचरितमानस को वाराणसी में श्री काशी विश्वनाथ मंदिर में सभी ग्रन्थों के नीचे रखा जाएगा और यह शर्त लगाई गई कि यदि सुबह यह ग्रंथ अपने आप सभी ग्रंथों के ऊपर रहेगा तभी इस ग्रंथ को सही माना जाएगा अन्यथा गलत माना जाएगा।
बिल्कुल ऐसा ही हुआ; श्रीरामचरितमानस को श्री काशी विश्वनाथ मंदिर में सभी ग्रंथों के नीचे रखा गया और मुगल सैनिकों के कड़े पहरेदारी लगायी गयी और धर्मगुरुओं की देख रेख में, ताकि कोई रात्रि में मंदिर में प्रवेश न कर सके, कड़ी निगरानी रखी गयी। इसके पक्ष में जितने विद्वान थे उन्होंने भगवान हरि नाम कीर्तन करना प्रारंभ किया।
जब अर्धरात्रि हुई, तब मंदिर के सभी घंटे एकाएक जोर-जोर से बजने लगे और जब सुबह दरवाजा खोला गया तो श्रीरामचरितमानस सभी ग्रंथों के ऊपर था और उस पर भगवान शिव जी के द्वारा "सत्यम् शिवम् सुन्दरम् " नाम से हस्ताक्षर भी हो गये थे। यह घटना सभी को अचम्भित करके रख दी और शासक अकबर भी विचलित हो गया। तब जाकर के इस ग्रंथ को महत्ता मिली। अब बात करते हैं, चौपाई की -
"पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना" की समीक्षा-
यह चौपाई गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा विरचित श्रीरामचरितमानस के अरण्यकाण्ड में 33वें व 34वें दोहे के बीच की दूसरी चौपाई है। पूरा अंश इस प्रकार है-
संकुल लता बिटप घन कानन। बहु खग मृग तहँ गज पंचानन।।
आवत पंथ कबंध निपाता। तेहिं सब कही साप कै बाता।।
दुरबासा मोहि दीन्ही सापा। प्रभु पद पेखि मिटा सो पापा।।
सुनु गंधर्ब कहउँ मै तोही। मोहि न सोहाइ ब्रह्मकुल द्रोही।।
दो0- मन क्रम बचन कपट तजि जो कर भूसुर सेव।
मोहि समेत बिरंचि सिव बस ताकें सब देव।।33।।
सापत ताड़त परुष कहंता। बिप्र पूज्य अस गावहिं संता।।
पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना।।
कहि निज धर्म ताहि समुझावा। निज पद प्रीति देखि मन भावा।।
रघुपति चरन कमल सिरु नाई। गयउ गगन आपनि गति पाई।।
ताहि देइ गति राम उदारा। सबरी कें आश्रम पगु धारा।।
सबरी देखि राम गृहँ आए। मुनि के बचन समुझि जियँ भाए।।
सरसिज लोचन बाहु बिसाला। जटा मुकुट सिर उर बनमाला।।
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई।।
प्रेम मगन मुख बचन न आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा।।
सादर जल लै चरन पखारे। पुनि सुंदर आसन बैठारे।।
दो0- कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि।।34।।
श्री गोस्वामी तुलसीदास जी के अनुसार इसका सही अर्थ इस प्रकार है-
चूंकि हर चौपाई का संबंध अपनी अगली व पिछली चौपाई से रहता है। श्रीरामचरितमानस की किसी भी चौपाई का भाव समझने के लिए उसके ऊपर व नीचे की चौपाइयों को भी देखना/समझना चाहिए तथा सम्बन्धित चौपाई किस प्रसंग में और क्यों आया है; यह भी जानना नितांत आवश्यक है।
इस चौपाई (पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना।।) का संबंध भी पिछली चौपाई व राक्षस कबंध से है । हालांकि श्रीरामचरितमानस में कबंध राक्षस के बारे में कम विवरण है, अपितु महर्षि वाल्मीकि जी कृत रामायण में विस्तृत विवरण है। दअरसल, कबंध राक्षस द्वारा ऋषियों को परेशान करने के कारण, कबंध राक्षस को पूर्व जन्म में दुर्वासा ऋषि ने क्रोधित होकर श्राप दिया था। इसलिए यहॅं कबंध राक्षस, श्राप व ऋषि दुर्वासा जी के क्रोध को प्रभु श्री रामचन्द्र जी से बता रहा है।
कबंध राक्षस श्री रामचन्द्र जी से कह रहा है कि मैं इस राक्षस रूप से पहले गन्धर्व था, लेकिन गलती के कारण मुझे दुर्वासा ऋषि ने श्राप देकर राक्षस बना दिया था, जो कि यह राक्षस रूप आज आपके दर्शन से दूर हो गया। तब श्री राम चन्द्र जी कह रहे हैं कि, हे गन्धर्व! मैं तुमसे कहता हूॅं, सनो- मुझे ब्रह्म कुल द्रोही नहीं सुहाता।
सापत ताड़त परुष कहंता। बिप्र पूज्य अस गावहिं संता।।, इस चौपाई से अभिप्राय है कि, श्री रामचन्द्र जी ने कहा कि "सापत" अर्थात् 'श्राप देता हुआ', "ताड़त" अर्थात् 'डांटता-फटकारता 'हुआ और "परूष" अर्थात् 'कठोर वचन कहता हुआ' ब्राह्मण भी पूज्य है; ऐसा संत कहते हैं।
पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना।।, इस चौपाई का प्रत्येक शब्द गंभीर विचार के योग्य है, और जिनको हिन्दू धर्म व अवधी भाषा का पूर्ण रूप से ज्ञान नहीं है, वे लोग इस चौपाई का गलत अर्थ निकालते हैं और सही अर्थ नहीं समझ पाते हैं।
पूजिअ बिप्र सील गुन हीना।; इस अर्ध चौपाई में 'बिप्र' शब्द का जो प्रयोग हुआ है, वह उस ब्राह्मण के लिए प्रयोग हुआ है, जो तपस्वी है। और 'सील गुन' शब्द का जो प्रयोग हुआ है, उसका तात्पर्य शील अर्थात् मृदुलता या कोमलता वाले गुण से है। अर्थात् यदि तपस्वी ब्राह्मण का स्वभाव कठोर है या उसमें कोमलता नहीं है, तो भी वह पूजनीय है।
सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना।।; इस भाग का सही अर्थ निकालने के लिए आपको इसे दो भागों में बांटना पड़ेगा!
'सूद्र न गुन' अर्थात् इन्हें शूद्र (तपस्या से हीन, मनोविकारों को वश में न रख सकने वाला, सेवक) मत समझ,
'गन ग्यान प्रबीना' अर्थात् इन्हें ज्ञान में प्रवीण मान या ज्ञानी समझ। 'न गुन' का अर्थ- मत समझ। 'गन' का अर्थ- गीनो या मानो।
इस वाक्य के पीछे श्री रामचन्द्र जी का अभिप्राय था, कि दुर्वासा जी के अवगुण (कठोरता) तो तू देख रहा है, लेकिन इनके जीवन में जो तप, त्याग, गुण और विशेषताएँ हैं; उनके ऊपर तुम्हारी दृष्टि नहीं जाती।
अर्थात् दुर्वासा जी जैसा बिप्र भी पूजनीय है, क्योंकि संत जन भी उनकी महिमा को भलीभाँति जानते हैं कि दुर्वासा जी रुद्रांश हैं। 'क्षणे रुष्टा: क्षणे तुष्टा: रुष्टा तुष्टा क्षणे-क्षणे' जिनका स्वभाव है, लेकिन उनमें तपोबल व ज्ञान भी तो है । यदि इनमें 'सील गुन' अर्थात् शील वाला गुण (कोमलता) नहीं है; तो क्या इन्हें शूद्र मान लिया जाए ? नहीं..! इनमें कोमलता नहीं है तो क्या हुआ, ये ज्ञान में तो प्रवीण हैं।
श्रीरामजी कबंध से मिलने के पश्चात सीधे माँ शबरी (जो कि गैर ब्राह्मण, या भील जाति की हैं) के आश्रम पहुँचते है और वहाॅं श्री रामचंद्र जी का माँ शबरी के प्रति आदर तो सर्वजगत को विदित है। श्रीराम चन्द्र जी खुद शबरी के हाथों से दिये गये कन्द-मूल, फल, बेर आदि बहुत प्रेम से खाते हैं और शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश भी देते हैं।
इसलिए आप भ्रामक बातों में न आइये, अपने बिजनेस के साथ-साथ भगवान की भक्ति भी कीजिए ताकि मनुष्य जीवन के जन्म का उद्देश्य (मोक्ष प्राप्त करना) पूर्ण हो सके।
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