आरूढ़ा सरस्वती स्तोत्रम्
माता सरस्वती जी का बीजमंत्र संयुक्त यह आरुढ़ा सरस्वती स्तोत्र साधक की समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला एवं वाक् वाणी की सिद्धि प्रदान करने वाला है। यह आरुढ़ा सरस्वती स्तोत्र रुद्रयामल तंत्र में वर्णित है।
यह स्तोत्र तीन भागों में बंटा है। सबसे पहले भाग में प्रार्थना पंक्तियां हैं, फिर दूसरे भाग में बीजमंत्र संयुक्त स्तुति है, उसके बाद तीसरे भाग में आत्मनिवेदन पंक्तियां हैं। इन तीन भागों से आरुढ़ा सरस्वती स्तोत्र पूर्ण होता है। तो आइए हम इसे प्रस्तुत करते हैं:
प्रार्थना एवं प्रणति के पद्य:-
आरुढा श्वेत हंसैर्भ्रमति च गगने दक्षिणे चाक्षसूत्रम्,
वामेहस्ते च दिव्याम्बरकनकमयं पुस्तकं ज्ञानगम्यम्।
सा वीणां वादयन्ती स्वकरजपैः शास्त्र-विज्ञान शब्दैः,
क्रीडन्ती दिव्यरूपा करकमलधरा भारती सुप्रसन्ना॥
श्वेतपद्मासना देवी श्वेतगन्धानुलेपना।
सा च तैर्मुनिभिः सर्वैर्ऋषिभिः स्तूयते सदा ||
या कुन्देदुताषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता,
या वीणा वरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिर्देवैः सदा वन्दिता,
सा मां पातु सरस्वती भगवती नि:शेष जाऽयापहा॥
शुक्लां ब्रह्मविचारसारपरमामाद्यां जगद्व्यापिनीं।
वीणापुस्तकधारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्॥
हस्ते स्फाटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थितां।
वन्दे तां परमेश्वरी भगवतीं बुद्धि प्रदां शारदाम् ॥१॥
बीजमंत्रगर्भित स्तुति:-
ह्रीं ह्रीं ह्रद्यैकबीजै शाशिरुचिरकमले कल्पविस्पष्टशोभे।
भव्ये भव्यानुकूले कुमतिवनदवे विश्ववन्द्याडिघ्रपद्मे।
पद्मे पद्मोपविष्टे प्रणतजनमनोमोद सम्पादयित्रि,
प्रोत्फुल्लज्ञानकूटे हरिनिजदयिते देवि संसारसारे॥2॥
ऐं ऐ ऐं दृष्टमन्त्रे कमलभवमुखाम्भोजभूते स्वरूपे,
रूपारूपप्रकाशे सकलगुणमये निर्गुणे निर्विकारे।
न स्थूलै नैव सूक्ष्मेऽप्यविदितविभवे नापिविज्ञानतत्वे,
विश्वे विश्वान्तराले सुरवरनमिते निष्कले नित्य शुद्धे ॥3॥
ह्रीं ह्रीं ह्रीं जाप्यतुष्टे हिमरुचिमुकुटे वल्लकी व्यग्रहस्ते,
मातर्मातर्नमस्ते दह दह जडतां देहि बुद्धि प्रशस्ताम्॥
विद्ये वेदान्तवेद्ये परिणतपठिते मोक्षदे मुक्तिमार्गे।
मार्गातीतस्वरूपे भव मम वरदा शारदे शुभ्रहारे॥4॥
धीं धीं धीं धारणाख्ये धृतिमतिनतिभिर्नामभिः कीर्तनीये,
नित्ये नित्ये निमित्ते मुनिगणनमिते नूतने वै पुराणे।
पुण्ये पुण्य प्रवाहे हरिहर नमिते नित्य शुद्धे सुवर्णे,
मातर्मात्रार्धतत्त्वे मतिमतिमतिदे माधव-प्रीतिमोदे॥५॥
ह्रूं ह्रूं ह्रूं स्वस्वरूपे दह दह दुरितं पुष्तकव्यग्रहस्ते,
सन्तुष्टाकारचित्ते स्मितमुखि सुभगे जृम्भिणि स्तम्भविद्ये।
मोहे मुग्धप्रवाहे कुरु मम विमतिध्वान्तविध्वंसमीड्ये,
गीर्वागग्भारति त्वं कविवररसनासिद्धिदे सिद्धिसाध्ये॥6॥
आत्मनिवेदन:-
स्तौमि त्वां त्वां च वन्दे मम खलु रसना नो कदाचित्त्यजेथा,
मा मे बुद्धिविरुद्धा भवतु न च मनो देवि मे यातु पापम् ।
मा मे दुःखं कदाचित्क्वचिदपि विषयेऽप्यस्तु मे नाकुलत्वम्,
शास्त्रे वादे कवित्वे प्रसरतु मम धीर्मास्तु कुण्ठा कदापि।।
इत्येतैः श्लोकमुख्यै: प्रतिदिनमुषति स्तौति यो भक्तिनम्रो,
वाणीं वाचस्पतेरप्यविदितविभवो वाक्पटुमृष्टकण्ठः ।
या स्यादिष्टार्थलाभैः सुतमिव सततं वर्धते सा च देवी,
सौभाग्यं तस्य लोके प्रभवति कविता विधनमस्तं प्रयाति॥
निर्विघ्नं तस्य विद्या प्रभवति सततं चाश्रुतग्रन्थबोध:,
कीर्तिस्त्रैलोक्यमध्ये निवसति वदने शारदा तस्य साक्षात्।
दीर्घायुर्योक पूज्यः सकलगुणनिधिः सन्ततं राजमान्यो,
वाग्देव्या: सम्प्रसादात्त्रि जगति विजयी सत्सभासु प्रपूज्यः ॥
!! इति आरुढ़ा सरस्वती स्तोत्रम् !!
जैसा कि स्तोत्र की पंक्तियों से स्पष्ट है, आरुढ़ा सरस्वती स्तोत्र साधक के समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला है एवं वाक् वाणी की सिद्धि प्रदान करने वाला है, एवं भक्तों की रक्षा करने वाला है। इसके अर्थ को अलग से बताने की आवश्यकता नहीं, बुद्धिमान व्यक्ति स्वयं अर्थ जान जाएंगे। हमें विश्वास है कि आप माता सरस्वती जी के इस दिव्य स्तोत्र का पाठ करके लाभ अवश्य उठाएंगे।
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