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The story of the lion and the jackal, एक कहानी

बहुत से कठोर स्वभाव वाले मनुष्य ऊपर से कोमल और शांत बने रहते हैं तथा कोमल स्वभाव वाले लोग कठोर दिखाई देते हैं। ऐसे मनुष्यों की ठीक ठीक पहचान कैसे हो?

The story of the lion and the jackal

यह कहानी महाभारत से ली गयी है। महाराज युधिष्ठिर जी अपने पितामह भीष्म जी से कुछ प्रश्नों का उत्तर पूछ रहे हैं।

युधिष्ठिर ने पूछा - तात! बहुत से कठोर स्वभाव वाले मनुष्य ऊपर से कोमल और शांत बने रहते हैं तथा कोमल स्वभाव वाले लोग कठोर दिखाई देते हैं। ऐसे मनुष्यों की ठीक ठीक पहचान कैसे हो?

The story of the lion and the jackal
भीष्म जी ने कहा - पुत्र युधिष्ठिर ! इस विषय में एक पुराना इतिहास , जो बाघ और सियार के संवाद के रूप में है , तुम्हें सुना रहा हूं ,  सुनो ---

पूर्वकाल की बात है,  पूरीका नाम की एक नगरी थी ,जो प्रचुर धन-धान्य से संपन्न थी। उसमें पौरीक नाम का एक राजा राज्य करता था। वह बड़ा ही क्रूर और नीच था। सदा दूसरे प्राणियों की हिंसा में लगा रहता था । धीरे-धीरे उसकी आयु समाप्त हुई, मरने के बाद अपने पूर्व कर्मों के कारण उसका सियार की योनि में जन्म हुआ । किंतु उससे पूर्व जन्म का भी स्मरण बना रहा, इसलिए उस अधम योनि में पूर्व वैभव की याद आने से सियार को बड़ा खेद और वैराग्य हुआ। अब उसने जीवों की हिंसा करनी छोड़ दी, सत्य बोलने का नियम लिया और वह अपने व्रत का दृढ़ता पूर्वक पालन करने लगा। 

दिन रात में एक बार निश्चित समय पर भोजन करता और वह भी पेड़ों से अपने आप गिरे हुए फलों का । उसने श्मशान भूमि में ही रहना पसंद किया , क्योंकि उसका जन्म हुआ था ।
जन्मभूमि के स्नेह से किसी दूसरे स्थान पर उसका मन नहीं लगता था। 

सियार का इस तरह पवित्र आचार - विचार से रहना उसके जाती भाइयों को अच्छा ना लगा । उनके लिए यह बर्दाश्त के बाहर की बात हो गई। इसलिए वे लोग प्रेम और विनय भरी बातें सुना कर उसकी बुद्धि को चलायमान करने लगे। उन्होंने कहा -  भाई सियार ! तू मांसाहारी जीव है और श्मशान भूमि में रहता है फिर भी पवित्र आचार - विचार से रहना चाहता है, यह तेरी उल्टी समझ का परिणाम है।

भैया सियार! हमारे ही समान होकर रह। तेरे लिए भोजन हम लोग ला दिया करेंगे, तू सिर्फ इस शौचाचार का अड़ंगा छोड़ कर चुपचाप खा लिया करना। तेरी जाति का जो सदा से भोजन रहा है वही तेरा भी होना चाहिए ।
उनकी ऐसी बात सुनकर सावधान हो गया और मीठे तथा युक्तियुक्त वचनों से उन्हें समझाता हुआ बोला -  बंधुओं! अपने व्यवहारों के कारण ही हमारी जाति का कोई विश्वास नहीं करता , अच्छे स्वभाव और आचरण से ही कुल की प्रतिष्ठा होती है। 

अतः मैं भी वही कर्म करना चाहता हूं, जिससे अपने वंश का यश बढ़े।
यदि मेरा निवास शमशान भूमि है तो इसके लिए मैं जो समाधान देता हूं उसको सुनो-  आश्रम (कुटी) बनाकर रहना ही धर्म में कारण हो, ऐसी बात नहीं है,  कोई भी शुभ कर्म आत्मा की प्रेरणा से ही होता है।

आश्रम में रहकर ही यदि कोई गाय की हत्या करे तो क्या उसे पाप नहीं लगेगा ? अथवा आश्रम से अलग शमशान आदि स्थानों में ही यदि कोई गोदान करें तो किया वह व्यर्थ हो जाएगा  ? उससे पुण्य नहीं होगा ?  
तुम लोगों की जीविका असंतोष से पूर्ण, निंदनीय, धर्म की हानि के कारण दूषित तथा इस लोक और परलोक में अनिष्ट फल देने वाली है, इसलिए मैं उसे पसंद नहीं करता।
सियार के इस आचार-विचार की चर्चा चारों ओर फैल गई।
 
तदंतर एक व्याघ्र ने स्वयं आकर उसका विशेष सम्मान किया और उसे शुद्ध तथा बुद्धिमान समझ कर अपना मंत्री बनना स्वीकार करने के लिए उससे प्रार्थना की ।
व्याघ्र बोला -  सौम्य !

मैं तुम्हारे स्वरूप से परिचित हूं , तुम मेरे साथ चल कर रहो और मनमाने भोग भोगना। एक बात तुम्हें सूचित कर देते हैं , हमारी जाति का स्वभाव कठोर होता है , यह दुनिया जानती है।

यदि तुम कोमलता पूर्वक व्यवहार करते हुए मेरे हित साधन में लगे रहोगे तो तुम्हारा भी भला होगा।

सियार ने कहा - हे मृगराज  ,  आपने मेरे लिए जो बात कही है वह सर्वथा आप के योग्य है,  तथा आप जो धर्म और अर्थ साधन में कुशल एवं शुद्ध स्वाभाव वाले सहायक ढूंढ रहे हैं , यह भी उचित ही है।

हे महाभाग -  इसके लिए आपको चाहिए कि जिनका आपके प्रति अनुराग हो , जिन्हें नीति का ज्ञान हो , जो संधि कराने में कुशल , विजयाभिलाषी , लोभ रहित  , बुद्धिमान , हितैषी तथा उदार हृदय वाले हो -  ऐसे व्यक्तियों को सहायक बनाकर पिता और गुरु के समान उनका आदर करें ।

आप मेरे लिए जो सुविधाएं दे रहे हैं उनकी मुझे इच्छा नहीं है । मैं सुख , भोग तथा उनके आधारभूत ऐश्वर्य को नहीं चाहता  । आपके पुराने नौकरों के साथ मेरा स्वभाव भी नहीं मिलेगा । वे  दुष्ट प्रकृति के जीव हैं,  आपको मेरे विरुद्ध भड़काया करेंगे,  उनका प्रताप बढ़ा हुआ है । 

अतः उनको मेरे अधीन होकर रहना अच्छा नहीं मालूम होगा । 

इधर मेरा स्वभाव भी कुछ विलक्षण है , मैं पापियों पर भी कठोरता का बर्ताव नहीं करता , दूर तक की बात सोचता हूं , मेरा उत्साह कभी कम नहीं होता ,  मुझ में बल की मात्रा भी अधिक है , मैं स्वयं कृतार्थ हूं और प्रत्येक कार्य सफलता के साथ कर सकता हूं । किसी की सेवा टहलका तो मुझे बिल्कुल भी ज्ञान नहीं है । स्वतंत्रता पूर्वक वन में विचारता रहता हूं।  मेरे जैसे वनवासियों का जीवन आसक्ति रहित और निर्भय होता है । 

एक जगह बेखटके पानी मिलता हो तो दूसरी जगह भय देने वाला स्वादिष्ट फल प्राप्त होता हो -  इन दोनों को यदि विचार करके देखता हूं तो मुझे वहां ही सुख जान पड़ता है , जहां कोई भय नहीं है । 

राजा के पास रहने में सदा ही भय है। राज सेवकों में से जितने लोग दूसरों के लगाए हुए झूठे कलंक के कारण राजा के हाथ से मारे गए हैं , उतनी सच्चे अपराधों के कारण नहीं । 

हे मृगराज  ! यदि मुझसे मंत्रीत्व का कार्य लेना ही हो तो मैं आपसे एक शर्त  चाहता हूं - उसी के अनुसार आपको मेरे साथ बर्ताव करना पड़ेगा । मेरे आत्मीय व्यक्तियों का आप सम्मान करें, उनके हितकारिणी बात सुने  ।

मैं आपके दूसरे मंत्रियों के साथ कभी परामर्श नहीं करूंगा । एकांत में सिर्फ आपके साथ अकेला ही मिलूंगा और आपके हित की बात बताया करूंगा । आप भी अपनी जाति भाइयों की कामों में मुझसे हिता हित की बात ना पूछिए गा  । मुझसे सलाह करने के बाद यदि आपके पहले के  मंत्रियों की भूल भी साबित हो तो उन्हें प्राण दंड ना दीजिएगा,  तथा कभी क्रोध में आकर मेरे आत्मीय जनों पर भी प्रहार न कीजिएगा । 

शेर ने कहा  - ऐसा ही होगा ! कहकर सियार का बड़ा आदर किया ।  सियार ने भी उसका मंत्री होना स्वीकार कर लिया । 

फिर तो उसका बड़ा स्वागत सत्कार होने लगा । प्रत्येक कार्य में उसकी प्रशंसा होने लगी यह सब देख सुनकर पहले कि सेवक और मंत्री जल भूल गए । सब उसके साथ द्वेष करने लगे। उनके मन में दुष्टता भरी थी,  इसलिए वे झुंड बांधकर बारंबार सियार के पास आते और अपनी मित्रता जताते हुए उसको समझा बुझा कर अपने ही समान दोषी बनाने की कोशिश करते । सियार के आने से पहले उनकी रहन-सहन कुछ और ही थी । दूसरों की वस्तु छीन कर स्वयं उसका उपभोग करते थे,  किंतु अब उनकी दाल  नहीं गलती थी। वह किसी का भी धन लेने में असमर्थ थे, क्योंकि सियार ने उन पर बड़ी कड़ी पाबंदी लगा रखी थी , वे चाहते थे _ सियार भी डिग जाए । 

इसलिए तरह तरह की बातों में उसे फुसलाते और बहुत सा धन देने का लोभ दिखाते थे।

मगर सियार बड़ा बुद्धिमान था । वह उनके चकमें में नहीं आया । उसने धैर्य नहीं छोड़ा,  तब उन नौकरों ने उसका नाश करने की शपथ खाई और सब मिलकर इसके लिए प्रयत्न करने लगे। 

एक दिन उन्होंने शेर के खाने के लिए जो मांस तैयार करके रखा गया था  उसे उसके स्थान से चुरा लिया और सियार की माॅंद में ले जाकर रख दिया ।

सियार ने मंत्री पद पर आते समय शेर से पहले ही ठहरा दिया था कि राजन यदि तुम मुझे मित्रता करना चाहते हो तो किसी के बहकावे में आकर मेरा विनाश ना करना ।

उधर शेर को जब भूख लगी और वह भोजन के लिए उठा तो उसके आने के लिए रखा हुआ मांस दिखाई  नहीं पड़ा । शेर ने चोर का पता लगाने के लिए नौकरों को आज्ञा दी  । तब जिनकी यह करतूत थी, उन्हीं लोगों ने शेर से उस मांस के बारे में बताया - महाराज ! अपने को बड़ा बुद्धिमान और पंडित मानने वाले सियार महोदय ने ही आपके मांस का अपहरण किया है  । सियार कि यह चपलता सुनकर शेर गुस्से से भर गया और उसको मार डालने का विचार करने लगा । 

उस समय सियार के प्रतिकूल कुछ कहने का मौका देखकर पहले के मंत्री लोग शेर से कहने लगे -  राजन  ! वह तो बातों से ही धर्मात्मा बना हुआ है , स्वभाव का बड़ा कुटिल है,  भीतर का पापी है,  मगर ऊपर से धर्म का ढोंग बनाए हुए है। उसका सारा आचार - विचार दिखावे के लिए है । यह कहकर वे क्षण भर में उस मांस को सियार की मांद से उठा ले आए । शेर ने उनकी बातें सुनीं और जब निश्चय हो गया कि सियार ने ही मांस ले ले गया था तो उसने उसको मार डालने की आज्ञा दे दी।

शेर की यह बात जब उसकी माता को मालूम हुई तो वह हितकारी वचनों से उसे समझाने के लिए आई और कहने लगी -  बेटा ! इसमें कुछ कपट पूर्ण षड्यंत्र हुआ जान पड़ता है । तुम्हें इस पर विश्वास नहीं करना चाहिए ।

काम में लाग - डांट हो जाने से जिनके मन में पाप होता है ,वह निर्दोष को ही दोषी बनाते हैं।

किसी को अपने से ऊंची अवस्था में देखकर अक्सर लोगों को ईर्ष्या हो जाया करती है। वे उसकी उन्नति नहीं सह  सकते । कोई कितना ही शुद्ध क्यों ना हो , उस पर भी दोष लगा देते हैं । 

लोभी ,शुद्ध स्वभाव वाले व्यक्तियों  से और आलसी , तपस्वी से द्वेष करते हैं।  इस प्रकार मूर्ख लोग पंडितों से , दरिद्र धनियों से, पापी धर्मात्माओं से और कुरूप रूपवानों से जलन करते हैं । 

विद्वानों में भी कितने ही ऐसे अविवेकी, लोभी और कपटी होते हैं जो बृहस्पति के समान बुद्धि रखने वाले  निर्दोष व्यक्ति में भी दोष निकाला करते हैं। 

एक ओर तो जब घर में सुनसान था उस समय तुम्हारे मांस की चोरी हुई है , दूसरी ओर एक व्यक्ति ऐसा है जो देने पर भी मांस नहीं लेना चाहता --  इन दोनों बातों पर अच्छी तरह विचार करो । 

संसार में बहुत से असभ्य प्राणी सभ्य की तरह और सभ्य प्राणी असभ्य की तरह देखे जाते हैं । इस प्रकार उनमें अनेकों भाव दृष्टिगोचर होते हैं । अतः उनकी परीक्षा कर लेना ही उचित है । 

आकाश औंधीं  कढ़ाई के सामान और जुगनू अग्नि के समान दिखाई देते हैं,  किंतु ना तो आकाश में कढ़ाई है और ना जुगनू में आग ही है ।  इसलिए सामने दिखाई देती हुई  वस्तु की भी जांच करनी चाहिए । 

जो जानने बुझने के बाद किसी विषय में अपना विचार प्रकट करता है , उसे पीछे पछतावा नहीं होता। राजा के लिए किसी को मरवा डालना कठिन काम नहीं है , मगर इससे उसकी बढ़ाई नहीं होती है। 

 शक्तिशाली पुरुष में यदि क्षमा हो तो उसी की प्रशंसा की जाती है,  उसी से उसका यश बढ़ता है।  

बेटा !  सोचो तो, तुमने स्वयं ही सियार को मंत्री के आसन पर बिठाया है और तुम्हारे सामन्तों  में भी इसकी ख्याति बढ़ गई है । ऐसा सुपात्र मंत्री बड़ी मुश्किल से मिलता है , यह तुम्हारा बड़ा हितैषी है,  इसलिए तुम्हें इसकी रक्षा करनी चाहिए । 

जो दूसरों के मिथ्या कलंक लगाने पर निर्दोष को भी अपराधी मानकर दंड देता है,  वह दुष्ट राजा मंत्रियों के साथ रहने के कारण शीघ्र ही मौत के मुख में पड़ता है।

शेर की माता इस प्रकार उपदेश दे ही रही थी कि,  उस शत्रु समूह के भीतर से एक धर्मात्मा व्यक्ति उठकर शेर के पास आया,  वह सियार का जासूस था। 

उसने,  जिस प्रकार यह कपट लीला की गई थी,  उसका भंडाफोड़ कर दिया। इससे शेर को सियार की सच्ची मित्रता का पता चल गया , और उसने मंत्री का सत्कार करके उसको इस अभियोग से मुक्त कर दिया तथा अत्यंत स्नेह के साथ उसे बारंबार गले से लगाया।

सियार नीति शास्त्र का ज्ञाता था , उसने शेर की आज्ञा लेकर उपवास करके प्राण त्याग देने का विचार किया।  शेर ने उसे इस कार्य से रोका और उसका भली-भांति आदर सत्कार किया ।

उस समय स्नेह के कारण शेर का चित्त विकल हो रहा था । शेर  की अवस्था देखकर सियार का भी गला भर आया और वह उसे प्रणाम करके गदगद कंठ से बोला -  राजन  ! पहले तो आपने मुझे सम्मान दिया और पीछे अपमानित दिया ,  शत्रु की स्थिति में पहुंचा दिया।  अब मैं आपके पास रहने की योग्य नहीं हूं । 

जो अपने पद से हटाए गए हो,  सम्मानित स्थान से नीचे गिरा दिए गए हो ,  जिनका सर्वस्व छीन लिया गया हो , जो दुर्बल,  लोभी  , क्रोधी और डरपोक हो,  जिन्हें धोखे में डाला गया हो ,  जिन का धन लूट लिया गया हो तथा जिन्हें क्लेश दिया गया हो,  ऐसे सेवक शत्रुओं का काम करने लगते  हैं । 

आपने परीक्षा लेकर , योग्य समझकर मुझे मंत्री के आसन पर बिठाया था और अपनी की हुई प्रतिज्ञा को तोड़कर मेरा अपमान किया है ।  ऐसी दशा में अब आपका मुझ पर विश्वास नहीं रहेगा और मैं भी आप पर विश्वास ना होने के संदेह में पड़ा रहूंगा।  आप मुझ पर संदेह करेंगे और मैं सदा आप से डरता रहूंगा ।

इधर दूसरों के दोष ढूॅंढ़ने वाले आप के सभासद लोग मौजूद ही हैं । इनका मुझसे तनिक भी स्नेह नहीं है तथा इन्हें संतुष्ट रखना भी मेरे लिए बहुत कठिन है। 

प्रेम का बंधन जब एक बार टूट जाता है तो उसका जुड़ना मुश्किल हो जाता है और जो जुड़ा हुआ होता है वह बड़ी कठिनाई से टूटता है,  किंतु जो बार बार टूटता और जुड़ता रहता है उसमें उसमें स्नेह नहीं होता है । राजाओं का चित्त चंचल होता है । उनके लिए सुयोग्य व्यक्ति की पहचानना बहुत कठिन है । सैकड़ों में एक ही ऐसा मिलता है जो सब तरह से समर्थ हो और किसी पर भी संदेह न करता हो। 

इस प्रकार धर्म,  अर्थ , काम,  तथा युक्तियों  से संयुक्त सान्त्वनापूर्ण  वचन कहकर सियार ने शेर को प्रसन्न किया और फिर स्वंय वन में चला गया । सिसार बड़ा बुद्धिमान था इसलिए शेर की अनुनय विनय ना मानकर मृत्यु पर्यंत निराहार रहने का व्रत ले एक स्थान पर बैठ गया और अंत में शरीर त्यागकर  स्वर्ग धाम में जा पहुंचा ।

निष्कर्ष-  तो मित्रों! आप समझ गये होंगे कि किसी पर विश्वास और अच्छे लोगों की पहचान बड़ी ही सावधानी और बुद्धिमानी पूर्वक करना चाहिये। 

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